Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai

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Page 35
________________ Acharya Sh Kailasagerul Syanmandit 夸张供佛来佛佛席柴晓张密密亲密亲密亲密晓彤张张张露 दीक्षा गृहीता दिनमेकमेव, येनोग्रचित्तेन शिवं स यानि । न तत् कदाचित् तदवश्यमेव, वैमानिकः स्यात् त्रिदशप्रधानः॥८॥ पर्व० मौन० पृ. १६ श्लोक १४९ नो दुष्कर्मप्रयासो न युवतिसुतस्वामिदुर्वाक्यदुःखं, राजाद्रौ न प्रणामोऽशनवसनधनस्थानचिन्ता न चैव।। ज्ञानाप्तिर्लोकपूजा प्रशमसुखरतिः प्रेत्य मोक्षाद्यवाप्तिः, श्रामज्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम् ॥९॥ मिथ्या वक्तुं न हि जानमि, सारं किंचित्तव कथयामि । गुप्तित्रितयं समितीः पश्च, यावजीवं खलु मा मुश्च ॥१०॥ पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कपायजयः । दण्डप्रयविरतिश्चेति, संयमः सप्तदशभेदः ॥ ११ ॥ जयणाय धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी होइ । तवपुट्ठीकरीजयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥१२॥ कपाया यस्य नो छिना, यस्य नात्मवशं मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य निष्फला ॥ १३ ॥ ९ मुनी-योगी पूर्णो मनः स्थिरोऽमोदी ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तृप्तो निर्लेपो निस्पृहो मुनिः ॥१॥ विद्याविवेकसम्पन्नो मध्यस्थो भयवर्जितः । अनात्मशंसकस्तत्त्वदृष्टिः सर्वसमृद्धिवान् ॥ २॥ ध्याता कर्मविपाकानामुद्विनो भववारिधेः । लोकसंज्ञाविनिर्मुक्तः शास्त्रदृग् निष्परिग्रहः ॥ ३॥ शुद्धानुभववान् योगी नियागप्रतिपत्तिमान् । भावार्चाध्यानतपसां भूमिः सर्वनयाश्रितः ॥ ४॥ स्पष्ट निष्टक्तिं तत्वं अष्टकैः प्रतिपत्रवान् । निर्महोदयं ज्ञानसारं समधिगच्छति ॥५॥ For Private And Personal use only 安聯席张继张晓张隆亲密密卷卷卷张席常亲密亲密密落

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