Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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ShiMahayeJainrachanaKendra
Acharya Sh Kailasagar
Gyanmandi
जैन सक्त ॥२२॥
अतिथिसंविभागवतम्
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४५ अतिथिसंविभागवतम् अतिथिभ्योऽशनावास-चासःपात्रादिवस्तुनः यत्प्रदानं तदतिथि संविभागवतं भवेत् ॥१॥ उ. स्त. ११ व्या. १६३ पश्य सङ्गमको नाम सम्पदं वत्सपालकः । चमत्कारकरी प्राप, मुनिदानप्रभावतः ॥ २ ॥ यो. द. पृ. श्लो. ८८
४६ अनित्यभावना अनित्यत्वाशरणते भवमेकत्वमन्यताम् , अशौचमाश्रयं चात्मन्, संवरं परिभाषय ॥१॥ कर्मणो निर्जरा धर्म-सूक्ततां लोकपद्धतिम् । बोधिदुर्लभतामेता. भावयन् मुच्यसे भवात् ॥ २॥ आयुर्वायुतरत्तरङ्गतरलं लग्नापदः सम्पदः, सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाः सन्ध्याभ्ररागादिवत् । मित्रस्त्रीस्वजनादिसङ्गमसुखं स्वप्मेन्द्रजालोपमम्, तत्कि वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ॥३॥ अम्भोधीनपि शोषयन्ति चतुरो येऽनन्तवीर्यान्विता, ये मेरुन् दलयन्ति वनकठिनैर्मुष्टिप्रहारैरपि । दण्डीकृत्य सुराचलं वसुमती छवाकृति कुर्वते, तावत्तेऽपि जनाः कृतान्तवदने कालेन सर्वे गताः॥ ४ ॥ यत्प्रातस्तन्न मध्याहे, यन्मध्याहृन तनिशि । निरोक्ष्यते भवेऽस्मिन् ही! पदार्थानामनित्यता ॥५॥ यो.प्र.४ श्लो.५७ याति कालो गलत्यायुर्विभूतिरतिचञ्चला । प्रियेषु क्षणिकं प्रेम, कथं धर्मेऽवधीरणा ॥६॥ चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलः, सद्बांधवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः ।
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॥२२॥

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