Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai

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Page 86
________________ SM Mahavam A kende www.kobathrtm.org Acharya Sh Kailas Gyamandit २ ऋजुता जैन मुक्त ॥३७॥ 会參器能帶帶等等際遊聯柴柴柴榮帶柴柴柴路整龄柴柴」 धर्मस्य दया मूलं, न चाक्षमावान् दयां समाधत्ते । तस्माद्यः शान्तिपरः, स साधयत्युत्तमं धर्मम् ॥४॥ प्रश० श्लो०१६८ क्षमया क्षीयते कर्म, दुःखदं पूर्वसंचितम् । चित्तं च जायते शुद्धं, विद्वेषभयवजितम् ॥ ५॥ तत्त्वामृत श्लो० २६९ । क्षमा (खङ्ग) धनुः करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति ? । अतृणे पतितो वह्निः, स्वयमेवोपशाम्यति ॥६॥ वृद्ध, श्लो.६३ खेती सुहाण मूलं, मूलं धम्मस्स उत्तमा खेती । हरह महाविज्जा इव, खंती दुरियाई सव्वाई ॥ ७ ॥ संबोधसत्तरीप्र० यस्य क्षान्तिमयं शस्त्रं, कोषाग्नेरुपशामकम् । नित्यमेव जयस्तस्य, शत्रणामुदयः कुतः॥८॥ ददतु ददतु गालीर्गालिमन्तो भवन्तो, वयमिह तदभावाद्गालिदानेऽप्यशक्ताः। जगति विदितमेतद्दीयते विद्यमानं, ददति खरविषाणं किं महात्यागिनोऽपि ॥ ९॥ सूक्तमुक्तावली पृ० ८२-८३ ८२ ऋजुता तदार्जवमहौषध्या, जगदानन्दहेतुना । जयेजगद्रोहकारी, मायां विषधरीमिव ॥१॥ यो. च. प्र. श्लो.१७ नानार्जवो विशुध्यति, न धर्ममाराधयत्यशुद्धात्मा । धर्मादृते न मोक्षो, मोक्षात्परं सुखं नान्यत् ॥२॥ प्र. श्लो. १७० ८३ संतोषः संतोषः परमं सौख्य, संतोषः परमामृतम् । संतोषः परमं पथ्य, संतोषः परमं हितम् ॥११॥ हिं. श्लो. १४ संतुष्टाः सुखिनो नित्य-मसंतुष्टाः सुदुःखिताः। उभयोरन्तरं ज्ञात्वा, संतोषे क्रियतां रतिः ॥२॥ त. श्लो. २४४ 务器端際聯蒂蒂蒂蒂张继涨涨涨涨涨涨涨樂器端聯榮際 ॥३७॥ For Private And Personal Use Only

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