Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai

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Page 104
________________ ShriMahavirain ApartmenaKendra Achat kail a nmandi जेन सूक्त आत्ममेदा 黎恭奉泰拳黎黎黎器恭恭奉泰泰泰张张张张泰樂泰要来 परावृत्तिः पुराधीतागमोच्चार पुनः पुनः । तद्विचारस्त्वनुप्रेक्षा, व्याख्या धर्मकथा भवेत् ॥४॥ उ. प.१५ ग्लो. ६ श्रमणैः श्रावकैश्चापि, क्रियाकरणतत्परैः । चतुरिं विधातव्यः, स्वाध्यायोऽयमहर्निशम् ॥५॥ उ. प. १५ श्लो.८ १०८ आत्मभेदाः बहिर्भावानतिक्रम्य यस्याऽऽत्मन्याऽऽत्मनिश्चयः सोऽन्तरात्मा मतस्तज्ज्ञः, विभ्रमध्वान्तभास्करैः ॥१॥ आत्मबुद्धिः शरीरादौ, यस्य स्यादात्मविभ्रमात् । बहिरात्मा स विज्ञेयो मोहनिद्राऽस्तचेतनः ॥२॥ आत्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेत्र बहिरात्मा। कायादिः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु ॥३॥ यो. प्र.१२ श्लो.१ चिद्पानन्दमयो निशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः । अत्यक्षोऽनन्तगुणः, परमात्मा कीर्तितस्तझैः ॥४॥ यो.प्र.७श्लो.८ निर्लेपो निष्कलहः शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृत्तः । निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा, परमात्मेति निर्णितः ॥ ५ ॥ १०९ नमिपव्वज्जा किण्णु भो अज मिहिलाए कोलाहलगसंकुला । सुष्णन्ति दारुणा सदा पासाएसु गिहेसु य ॥१॥ मिहिलाए चेइए वच्छे सीयच्छाए मणोरमे । पत्तपुष्फलोवेए बहूर्ण बहुगुणे सया ॥२॥ वारण हीरमाणमि, चेइयंमि मणोरमे । दुहिया असरणा क्षत्ता एए कन्दन्ति भो खगा ॥३॥ सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंचण । मिहिलाए डझमाणीए न मे डन्झइ किंचण ॥४॥ 樂樂樂器盤樂器搬樂器器密盤樂器樂密密整张黎黎 For Private And Personal use only

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