Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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उग्गओ विमलो भाणू सव्वलोयपभंकरो । सो करीस्सइ उजोय सवलोगमि पाणिणं ॥३०॥ उग्गओ रवीणसंसारो सव्वन्न जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उओयं सव्वलोगंमि पाणिणं ॥ २१॥ सारीरमाणसे दुक्खे बज्झमाणाण पाणिणं । खेम सिवमणाबाई ठाणं, किं मनसि मुणी ॥२२॥ अत्थि एर्ग धुवं ठाणं लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्य नस्थि जरा मच्चू वाहिणो वेयणा तहा ॥ २३ ॥ निव्वणिति अवाहति सिद्वीलगग्गमेव य । खेमं सिर्व अणाबाह, जं तरन्ति महेसिणो ॥ २४ ॥ तं ठाणं सासर्य वासं लोगग्गमि दुरारुई । जं संपत्ता न सोयन्ति, भवोहन्तकरा मुणी ॥ २५ ॥ उ०प्र०
१११ नवकारसूत्रम् जिणसासणास सारो, चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो । जस्स मणे नवकारो, संसारो तस्स किं कुणइ ॥ १ ॥ हिसावाननृतप्रियः परधनहर्ता परस्त्रीरतः। किं चान्येष्वपि लोकगहितमहापापेषु गाहोद्यतः । मन्त्रेशं स यदि स्मरेदविरतं प्राणात्यये सर्वथा, दुष्कर्मार्जितदुर्गदुर्गतिरपि स्वर्गीभवेन्मानवः ॥ २ ॥ नवकार इक्कअक्खर पार्य फेडेद सन अयराणं । पन्नासं च पएणं पंचसयाई समगणं ॥३॥ जो गुणइ लक्खमेगं पूएइ विहीइ जिणनमुक्कारं । तित्थयरनामगो सो बंधइ नत्थि संदेहो ॥४॥ अठेव य अट्ठसया, असहस्सं च अकोडीओ । जो गुणइ भतिजुत्तो, सो पावद सासयं ठाणं ॥ ५॥ ०१.५१
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