Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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982228898-998****88-8****804
समणेण सावएण वा-ऽवस्स कायव्वं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसिस्स य, तम्हा आवस्य नाम ॥८॥ छुहवेयण १ वेयावच्चे ३, संजम ३ झाण ४ पाणरक्वणट्ठाए ५। इरियं च विसोहेउं ६, मुंजइ नो रूवरसहेउं ॥९॥ अहव न जिमिज्ज रोगे १, मोहुदए २ सयणमाइउक्सग्गे । पाणिदया ४ तवहेउं ५, अंते तणुमोयणत्थं ६ च ॥१०॥
१४० क्षमाधिकारः गयमेयजमहामुणि-खंदगसीसाण साहुचरियाई । समरंतो कह कुष्पसि, इत्तियमित्तेऽवि रे जीव ! ॥१॥ अक्कोसहणणमारण-धम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तराणं अभावम्मि ॥२॥ रे जीव सुहृदुहेसु, निमित्तमित्तं परो जीयाणं पि । सकयफलं भुजंतो, कीस मुहा कुष्पसि परस्स ॥३॥ पढम चिय ते जंतुं, कोहम्गी डहइ जत्थ उबवज्जे । त(ज)त्थुप्पन्नो तं चेव, इंधणं धूमकेउ ब्व ॥ ४ ॥ रे जीव ! कसायहुआ-सणेण दड्ढे चा(च)रित्तघरसारे । भमिहिसि भवकतारे, दीणमणो दुत्थिउ ब्व तुर्म ॥ ५॥ जं अज्जियं चरितं, देखणाए वि पुन्चकोडीए । तं पि हु कसायमित्तो, हारेइ नरो मूहुत्तेणं ॥६॥ सेयंबरो य आस-बरो य बुद्धो अ अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा, लहेइ मुखव न संदेहो ॥७॥ विकल्पविषयोत्तीर्णः, स्वभावालम्बनः सदा । ज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीर्तितः ॥८॥ सह कलेवर ! खेदमचिन्तयन् स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा ।धनतरं च सहिष्यसि जीव ! हे, परवशोन च तत्र गुणोऽस्ति ते ॥९॥
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