Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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Shi Mahavir Jain Aradhana Kendis
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१२३ उद्यापनम्
लक्ष्मीः कृतार्था सफलं तपोऽपि, ध्यानं सदोच्चैर्जनबोधिलाभः । जिनस्य भक्तिर्जिनशासने श्रीः गुणाः स्युरुद्यापनतो नराणाम् ॥ १ ॥
उद्यापनं तपसः समर्थ, तच्चैत्यमौलौ कलशाधिरोपणम् । फलोपरोपोऽक्षतपात्रमस्तके, ताम्बुलदानं कृतभोजनोपरि ॥२॥
१२४ तीर्थम्
एकाहारी भूमिसंस्तारकारी, पद्द्भ्यां चारी शुद्धसम्यक्त्वधारी ।
यात्राकाले सर्वसच्चित्तहारी, पुण्यात्मा स्याद् ब्रह्मचारी विवेकी ॥ १ ॥ उपदेशतरङ्गिणी पृ० २४३ (य. वि. प्र. ) मनोविशुद्धं पुरुषस्य तीर्थ, वाक्संयमश्चेन्द्रियनिग्रहश्च । त्रीण्येव तीर्थानि शरीरभाजां स्वर्गं च मोक्षं च निदर्शयति॥२॥ आरम्भाणां निवृत्तिर्द्रविणसफलता सङ्घवात्सल्यमुचे नैर्मल्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्णचैत्यादिकृत्यम् । तीथनत्यं च सम्यग् जिनवचनकृतिस्तीर्थसत्कर्मकत्वं सिद्धेरासन्नभावः सुरनरपदवी तीर्थयात्रा फलानि ।।३।। उ.प्र. २४२ श्री तीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति ।
तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसम्पदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ४ ॥ उपदेशतरङ्गिणी पृ. १४६ १२५ तीर्थयात्रा
यो दृष्टो दुरितं हन्ति, प्रणतो दुर्गतिद्वयम् । संघेशार्हन्त्यपदकृत्, स जीयाद्विमलाचलः ॥ १ ॥
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