Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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या च पालक !ते माता सा मे माता पितामही । भ्रातृजाया वधूः श्वश्रः, सपत्नी च भवत्यहो॥१०॥ सु० पृ. १०८-१० रम्भागर्भसमः सुखी शिखिशिखा वर्णाभिरुच्चैरयः। सूचिभिः प्रतिरोममेदितवपुस्तारुण्यपुण्यः पुमान् ॥ दुःखं यल्लभते तदष्टगुणितं स्वीकुक्षिमध्यस्थिती, संपद्येत ततोऽप्यनन्तगुणितं जन्मक्षये प्राणिनाम् ॥११॥ पापी रूपविवर्जितो गतकृपो यो नारकादागतः, तिर्यग्योनिसमागतश्च कपटी नित्यं युभुक्षातुरः। मानी ज्ञानविवेकबुद्धिकलितो यो मर्त्यलोकागतो, यस्तु स्वर्गसमागतः स सुभगः प्राज्ञः कविः श्रीयुतः ॥१३॥
सुभाषितसूक्तसंग्रह पृष्ट १११ ४९ एकत्व भावना एक एव भगवानयमात्मा, ज्ञानदर्शनतरङ्गसरङ्गः । सर्वमन्यदुपकल्पितमेतद्, व्याकुलीकरणमेव ममत्वम् ॥१॥ अबुधैः परभावलालसालसदज्ञानदशावशातमभिः । परवस्तुषु हा स्वीकीयता, विषयावेशवशाद् विकल्प्यते ॥२॥ कृतिनां दयितेति चिन्तनम् , परदारेषु यथा विपत्तये । विविधार्तिभयावह तथा, परभावेषु ममत्वभावनम् ॥३॥ अधुना परभावसंवृति हर चेतः परितोऽवगुण्ठिताम् । क्षणमात्मविचारचन्दन-द्रमवातोमिरसा स्पृशन्तु माम् ॥४॥ एकता समतोपेता-मेनामात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्द-सम्पदं नमिराजवत् ॥ ५ ॥ श्रीशान्त सु० च०प्र० यद्वद् द्रुमे महति पक्षिगणा विचित्राः, कृत्वाश्रयं हि निशि यान्ति पुनः प्रभाते ॥ तद्वजगत्यसकृदेव कुटुम्बजीवाः, सर्वे समेत्य पुनरेव दिशो भजन्ते ॥ ६ ॥ (उत्तराध्ययन टीका)
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