Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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अचौर्यम्
जन मूक्त ॥१६॥
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२२ अचौर्यम् अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम् । बामप्राणा नृणामों, हरता त हता हि ते ॥१॥ त्रि पर्व १०, स.३ लो.६२४ परार्थग्रहणे येषां, नियमः शुद्धचेतसाम् । अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां, स्वयमेव स्वयंवराः ॥२॥ यो० द्वि० प्र. श्लो. ७४
२३ चौर्यम् तदाद्यं स्वामिनादत्तं, जीवादत्तं तथाऽपरम् । तृतीयं तु जिनादत्तं, गुर्वदत्तं, तुरीयकम् ॥१॥ उ. प्रा. भा. २ पृ. १७० पतितं विस्मृतं नष्ट, स्थितं स्थापितमाहितम् । अदत्तं नाददीत स्वं, परकीय क्वचित्सुधीः ॥२॥ यो द्वि० प्र० श्लो०६६ अयं लोकः परलोको, धर्मों धैर्य धृतिर्मतिः। मुष्णता परकीयं स्वं, मुषितं सर्वमप्यदः ॥३॥ योगशास्त्र द्वि.श्लोक ६७ एकस्यैकं क्षणं दुःखं, मार्यमाणस्य जायते । सपुत्र-पौत्रस्य पुनर्यावजीवं हृते धने ॥४॥ योगशास्त्र द्वि. लो०६८ दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा, स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ।।५॥ त्रि. पर्व ? सर्ग ३ श्लो०६३२
२४ ब्रह्मचर्यम् । दिव्यौदारिककामानां, कृतानुमतिकारितः। मनोवाकायतस्त्यागो, ब्रह्माष्टादशधा मतम् ॥१॥ योगशास्त्र प्र. लो० २३ दिव्यात्कामरतिसुखात् , त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् ।। औदारिकादपि तथा, तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥२॥ प्रशमरति प्रकरण श्लोक १७७ संतोषः स्वेषु दारेषु, त्यागश्वापरयोषिताम् । प्रथयन्ति गृहस्थानां, चतुर्थ तदणुव्रतम् ॥५॥ उपदेश प्रा० भा० १ पृ०१८०
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॥१६॥

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