Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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१८ यज्ञम्
*यज्ञम् १८ यूपं छित्वा पशून हत्या, कृत्वा रूधिरसर्दमान् । यद्येवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते ॥१॥ म. शा. अ. १० श्लो.११ नाहं स्वर्गफलोपभोगतृपिनो नान्यतिस्त्वं मया, सन्तुष्टस्तुगमक्षणेन सततं साधो ! न युक्तं तव ।। स्वर्ग यान्ति यदि त्वया विनिहता यो ध्रुवं प्राणिनो, यज्ञं किं न करोपि मातृ-पितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः ॥२॥
धनपाल काव्य सर्ग० ७ श्लोक १६ सर्वसङ्गान् पशून् कृत्वा ध्यानाग्नावाहुति क्षिपेत् । कर्माणि समिधश्चैव, यागोऽयं सुमहाफलः ।।३।। तत्वा. श्लो. २५७ सत्यं यूपं तपो बग्निः, कर्माणि समिधो मन । अहिंसामाहुतिं दद्याद् , एष यज्ञः सतां मतः॥४॥दानचन्द्रि. श्लो. ७९
१९ सत्यम् प्रियं पथ्यं वचस्तथ्य, सूनृतव्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥१।। त्रि. सर्ग. ३ श्लो. ६२३ अविसंवादनयोगः, काय-मनो-नागजिह्मता चैत्र । सत्यं चतुर्विधं तच्च, जिनवरमतेऽस्ति नान्यत्र ।।२॥ प्र. प्र. श्लो.१७४ न सत्यमपि भाषेत, परपीडाकरं वचः । लोकेऽपि श्रूयते यस्मात् , कौशिको नरकं गतः ॥३॥ यो. द्वि. प्र. श्लो. ६१
२० असत्यम् कामाल्लोभाद्भयाक्रोधात्, साक्षि-वादात्तथैव च। मिथ्या वदति यत्पाप,तदसत्यं प्रकीर्तितम् ॥१॥ मा. अ. १ श्लो.३५/3
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