Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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Shri Mahavam
na Kenda
जैन सूक्त ॥३॥
串串恭恭琴拳拳带路张张张张继举举举拳擊器张密密
सम्यग्दर्शनमित्युक्त, प्राप्तावस्य क्षणादपि । मत्यज्ञानं पुराऽभूद्यत् , तन्मतिज्ञानतां ब्रजेत् ।। ५३॥ जन्मिनो यत् श्रुताज्ञान, तत् श्रुतज्ञानतां भजेत् । विभंगज्ञानमवधिज्ञानभावं च गच्छति ॥ ५४ ॥
(विंशतः चतुःपञ्चाशत् पर्यन्ताः श्लोकाः त्रिषष्ठिगतप्रथमजिनदेशनायाः) सम्मदिही जीवो विमाणवजन बंधए आउं ! जइ नवि सम्मत्तजदो, अहव न बद्धाउओ पुब्बिं ॥ ५५॥ दानानि शीलानि तपांसि पूआ, सत्तीर्थयात्रा प्रवरा दया च । सुश्रावकत्वं व्रतधारकत्वं, सम्यक्त्वमूलानि महाफलानि॥५६॥ पालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम् । आगमतचं तु सुधीः, परीक्षते सर्वयत्नेन ।। ५७ ।। पक्षपातो न मे बीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ५८ ॥ कालो सहाव नियई, पुवकयं पुरिसकारणं पंच । समवाए सम्मत्तं, एगते होइ मिच्छत्तं ॥ ५९॥ जा गंठी ता पदम, गैठी समइक्कमे भवे बीअं । अनिअट्टिकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥ ६ ॥ सम्मत्तंमि उ लढे पलियपुहुत्तेण सावओ हुजा । चरणोवसमखयाणं सागरसंखंतरा होति ॥ ६१ ॥ संवेगसंज्ञा शिवसंपदिच्छा, निर्वेदनामा तु भवाद् विरागः। कृतापराधेऽपि शमः शमत्वं, दया तु जीवेषु सदाऽनुकम्पा ॥६२! कृपाप्रशमसंवेग-निर्वेदास्तिक्यलक्षणाः । गुणा भवन्ति यच्चित्ते स स्यात् सम्यक्त्वभूषितः ॥ ६३ ॥ यथा चतुर्भिः कनक परीक्ष्यते, निपर्षण च्छेदनतापताडनैः। तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते, सत्येन शीलेन तपोदयागुणैः॥६॥
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