________________
( २३ )
ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व है और मेरा कार्य ज्ञाता द्रष्टा है । इस बात को भूलकर शरीर की अनुकूलता से मैं सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मैं दुखी ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन है । (३) मैं ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ और मेरा कार्य ज्ञाता द्रष्टा है । इस बात को भूलकर शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मै दुखी-ऐसा अनादिकाल का ज्ञान अगृहीत मिथ्याज्ञान है । ( ४ ) मे ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व है और मेरा कार्य ज्ञाता द्रष्टा है । इस बात को भूलकर शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मै दुखी-ऐसा अनादिकाल का आचरण अगृहीत मिथ्याचारित्र है । ( ५ ) वर्तमान मे विशेष रूप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव - कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिकुलता से मैं दुखी-ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान विशेष दृढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है । ( ६ ) वर्तमान मे विशेष रूप से मनुष्यभव व जैन धर्मी होने पर भी कुगुरू-कुदेव - कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिकुलता से मै दुखी - ऐसा अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहित मिथ्याज्ञान बताया है । ( ७ ) वर्तमान मे विशेषरूप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव कुधर्म का उपदेश मानने से शरीर की अनुकूलता से मैं सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मैं दुखी - ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है ।
प्र० ७ - मै ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीवतस्त्व हू, और मेरा कार्य ज्ञाता दृष्टा है । इस बात को भूलकर शरीर की अनुकूलता से मैं सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मै दुखी-ऐसा जीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत- गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यर