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नियम सार स्तवन
नारक नही, तिर्यच-मानव-देव पर्यय मै नही। कर्ता न, कारयिता नही, कर्तानुमन्ता मै नही ।। ७७ ॥ मै मार्गणा के स्थान नहि, गुणस्थान-जीवस्थान नहि । कर्ता न कारयिता नही, कर्तानुमन्ता भी नही ।। ७८ ।। बालक नही मै, वृद्ध नहि, नहि युवक तिन कारण नही। कर्ता न कारयिता नही, कर्तानुमन्ता भी नही ।। ७६ ।। मैं राग नहि मै द्वप नहि, नहि मोह तिन कारण नही। कर्ता न कारयिता नही, कर्तानुमन्ता मै नही ।। ८० ।। मै क्रोध नहि, मै मान नहि, माया नहि मै लोभ नहि । कर्ता न कारयिता नही, कर्तानुमोदक मैं नही ।। ८१ ।। भावी शुभाशुभ छोडकर तजकर वचन विस्तार रे । जो जीव ध्याता आत्म, प्रत्याख्यान होता है उसे ।। ६५ ।। कैवल्य दर्शन-ज्ञान-सुख कैवल्य शक्ति स्वभाव जो। मै हूँ वहीं, यह चिन्तवन होता निरन्तर ज्ञानि को ।। ६६ ॥ निज भाव को छोडे नही किचित ग्रहे परभाव नहि । देखे व जाने मै वही, ज्ञानी करे चिलन यही ।। ६७ ॥ जो प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश बन्धविन आत्मा। मै हूँ वही, भावता ज्ञानी करे स्थिरता वहाँ ।। ६८ ।। मै त्याग ममता निर्ममत्व स्वरूप मे स्थिति कर रहा । अवलम्ब मेरा आत्मा अवशेष वारण कर रहा ।। ६६ ।। मम ज्ञान मे है आत्मा दर्शन चरित मे आतमा। है और प्रत्याख्यान सवर योग मे भी आतमा ।। १०० ॥ मरता अकेला जीव एव जन्म एकाकी करे । पाता अकेला ही मरण अरू मुक्ति एकाकी करे ।। १०१ ॥ दृग्ज्ञान-लक्षित और शाश्वत मात्र-आत्मा मम अरे। अरू शेष सब सयोग लक्षित भाव मुझ से है परे ।। १०२ ॥
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