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तथा बहिरग दोनो प्रकार के परिग्रहो से रहित सातवे गुणस्थान से लेकर बारहवे गुणस्थान तक वर्तते हुये शुद्ध उपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अन्तरात्मा है । छठवे और पाचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा है । और चौथे गुणस्थानवर्ती जघन्य अन्तरात्मा है । (३) परमात्मा के दो भेद है- अरिहन्त परमात्मा और सिद्ध परमात्मा । वे दोनो सर्वज्ञ होने से लोक और अलाक सहित सर्व पदार्थों का त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण स्वरुप एक समय मे एक साथ जानने-देखने वाले, सबके ज्ञाता - दृष्टा है । ( ४ ) इसलिये आत्महितेषियो को चाहिये बहिरात्मपने को छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्मपना प्राप्त करे, क्योकि उससे सदैव सम्पूर्ण और अनन्त आनन्द की प्राप्ति होती है । यह 'जीवतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' छहढाला मे बताया है ।
प्र० ३६ - जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो ने 'जीवतत्त्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' क्या बताया है ?
उत्तर- ( १ ) प्रत्येक जीव ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीवतत्व है और पर्याय मे तीन प्रकार के है । (२) जो शरीर आत्मा को एक मानते है वे वहिरात्मा है । (३) जो शरीर और आत्मा को अपने भेदविज्ञान से भिन्न-भिन्न मानते है, वे अन्तरात्मा है । अन्तरात्मा के तीन भेद है - उत्तम, मध्यम और जघन्य । ( ४ ) सम्पूर्ण अशुद्धि का अभाव और सम्पूर्ण शुद्धि की प्राप्ति वह परमात्मा है । परमात्मा के दो भेद है - अरहन्त और सिद्ध । ( ५ ) ऐसा जानकर निज जीवतत्व का आश्रय लेकर वहिरात्मपने का अभाव करके अन्तरात्मा बनकर क्रम से परमात्मा बनना - यह 'जीवतत्व का 'ज्यो का त्यो श्रद्धान' हुआ, ऐसा जिन-जिनवर और जिनवर वृपभो ने बताया है ।
प्र० ४० - जिन-जिनवर और जिनवर वृषभों से कथित, 'जीवतत्त्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' जानने से क्या लाभ रहा
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