Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 260
________________ ( २५२ ) प्र० २८ - केवलज्ञान के विषय मे तीन खोटी मान्यतायें क्याक्या है ? 1 उत्तर - (१) जैसे लेडीपीपर मे चौसठपुटी चरपराहट शक्तिरुप से है किन्तु प्रगट रूप से नही है । उसे वर्तमान मे प्रगट रूप से माने तो वह मूर्ख ही है; उसी प्रकार आत्मा मे केवलज्ञान शक्तिरुप से है, उसे कोई व्यक्त पर्याय मे हे - ऐसा माने वह निश्चयाभासी मिथ्याद्रष्टि है । ( २ ) जैसे कोई लेडी पीपर चौसठ पुटी चरपराहट प्रगट माने तथा ऊपर डिब्बी का या किसी अन्य वस्तु का आवरण है - ऐसा माने तो वह भी मूर्ख है, उसी प्रकार आत्मा मे केवलज्ञान पर्याय मे प्रगट है किन्तु कर्म के आवरण के कारण रुका हुआ है - ऐसा जो मानता है वह व्यवहाराभापी मिथ्यादृष्टि है । क्योकि जड कर्म के कारण पर्याय रुकी है यह मान्यता मिथ्यात्व है । ( ३ ) जैसे लैन्डी पीपर मे चौसठ पुटी चरपराहट शक्तिरुप से है वह पत्थर से या अन्य किसी निमित्त के कारण प्रगट होती है, तो वह भी मूर्ख है, उसी प्रकार आत्मा मे केवलज्ञान शक्तिरुप से है, परन्तु निमित्त हो या शुभभाव होवे तो प्रगटे, तो वह भी व्यवहाराभाषी मिथ्यादृष्टि है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १९४ का मर्म ] 1 प्र० २६ - अरहन्त भगवान की दिव्यध्वनि मे क्या आता है ? उत्तर - आत्मा स्वय ही अपना प्रभु है । मैं अपना प्रभु और तू अपना प्रभु है । मेरी प्रभुता मेरे मे और तेरी प्रभुता तेरे मे । इसलिये अपनी आत्मा को पहचान कर उसके सन्मुख हो, इसी मे तेरा कल्याण है इस प्रकार सर्वज्ञदेव अरहन्त परमात्मा की दिव्यध्वनि मे आता हे । प्र० ३० - जिनवचन क्या है ? उत्तर - वचनामृत वीतराग के, परम शान्त रस मूल । औषध जो भवरोग के, कायर को प्रतिकूल ॥ ¡ भावार्थ - ( १ ) जिनवचन तो स्व-पर का भेदविज्ञान कराके परम

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