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( १४० ) बला नही किया जा सकता। (इस उदाहरण को अब सम्यक्ज्ञानी की अपेक्षा से बताते है) सम्यक्ज्ञानी पुरुष तो शार्दूलसिह है और अष्टकर्म बैरी है। सम्यक्ज्ञानीरूपी सिह मरण के समय इन अष्टकर्मरूपी बैरियो को जीतने के लिए विशेप रुप से उद्यम करता है। मृत्यु को निकट जानकर सम्यक्ज्ञानी पुरुष सिह की तरह सावधान होता है ओर कायरपने को दूर ही से छोड देता है। प्र० ५- सम्यग्दृष्टि कैसा होता है और कैसा नहीं होता है ?
उत्तर-उसके हृदय मे आत्मा का स्वरुप दैदीप्यमान प्रकट रूप से प्रतिभासता है । वह ज्ञान ज्योति को लिये आनन्दरस से परिपूर्ण है।
वह अपने को साक्षात् पुरुषाकार अमूर्तिक, चैतन्य धातुका पिड, अनन्त गुणो से युक्त चैतन्यदेव ही जानता है। उसके अतिशय से ही वह परद्रव्य के प्रति रचमात्र भी रागी नही होता है।
प्र० ६- सम्यग्दृष्टि रागी क्यो नही होता है ?
उत्तर-वह अपने निज-स्वरूप को वीतराग ज्ञाता-दृष्टा, पर द्रव्य से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है और परद्रव्य को क्षणभगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भली भाति भिन्न जानता है। इसलिये सम्यक्ज्ञानी रागी नही होता है और वह मरण से कैसे डरे ? न डरे।
प्र०७-ज्ञानी पुरूष भरण के समय किस प्रकार की भावना व विचार करता है ?
उत्तर-"मुझे ऐसे चिन्ह दिखाई देने लगे है जिनसे मालूम होता है कि अव इस शरीर की आयु थोडी है इसलिये मुझे सावधान होना उचित है इसमे (देर) विलम्ब करना उचित नहीं है । जैसे योद्धा युद्ध की भेरी सुनने के बाद बैरियो पर आक्रमण करने मे क्षण मात्र की भी देर नही करता है और उसके वीर रस प्रकट होने लगता है कि "कब बैरियो से मुकाबला करु और कब उनको जीतू ।"