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मे किसलिये दिया ? एक मात्र निश्चयनय हीं का निरुपण करना
था ।
उत्तर - ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है - वहाँ उत्तर दिया दिया है - जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा विना अर्थ ग्रहण कराने मे कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना (ससार मे ससारी भाषा के बिना) परमार्थ का उपदेश अगवय है । इसलिये व्यवहार का उपदेश है । इस प्रकार निश्चय का ज्ञान कराने के लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते है, उसका विपय भी है, परन्तु वह अगीकार करने योग्य नही है ।
प्र व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नही होता है इसके पहले प्रकार को समझाइये ?
उत्तर - निश्चय से आत्मा पर द्रव्यो से भिन्न स्वाभावो से अभिन्न सिद्ध वस्तु है । उसे जो नही पहचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नही पाये । इसीलिये उनको व्यवहारनय से शरीरादिक पर द्रव्यो की सापेक्षता द्वारा नर-नारक- पृथ्वी कायादिरुप जीव के विशेष किये, तब मनुष्य जीव है, नारकी जीव है । इत्यादि प्रकार सहित उन्हे जीव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार विना ( शरीर के सयोग बिना) निश्चय के ( आत्मा के ) उपदेश का न होना
जानना ।
प्र० ८१ प्रश्न ८० मे व्यवहारनय से शरीरादिक सहित जीव की पहचान कराई - तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नही करना चाहिए ? सो समझाइये |
उत्तर-व्यवहारनय से नर-नारक आदि पर्याय ही को जीव कहा- सो पर्याय ही को जीव नही मान लेना । वर्तमान पर्याय तो जीव- पुद्गल के सयोग रूप है । वहाँ निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न उस ही को जीव मानना । जीव के सयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा- सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से शरीरादिक