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मान्यताओ के आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र वताया है ।
प्र० १८-बन्ध तत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत- गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम पूर्ण सुखोपना कैसे प्रगट होवे इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल में क्या बताया है ?
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उ०- चेतन को है उपयोगरुप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म-अधर्म काल । इनते न्यारी है जीव चाल ॥ (१) मै ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीवतत्व है (२) मेरा कार्य ज्ञाता - दृष्टा है । (३) आँख - नाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नही है । ( ४ ) चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है । ( ५ ) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है। (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व में अनन्त जीव द्रव्य है - उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । (७) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है - उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । ( ८ ) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे धर्म-अधर्म - आकाश ऐकेक द्रव्य है- उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है । (९) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है- उनकी चाल मुझ जीव से भिन्न ही है। ऐसा निज जीवतत्त्व का स्वरुप जानते -मानते ही तत्काल बधतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण सुखीपना प्रगट हो जाता है । यह एक मात्र बधतत्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत- गृहीत मिथ्यादर्शनादि के अभाव का उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है ।
प्र० १६ - संवर तत्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत मिथ्यादर्शनादि और गृहीत मिथ्यादर्शनादि का स्वरूप छहढाला की दूसरी मे क्या-क्या बताया है ?
ढाल