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जग मे जिसको निज कहता मैं, वह छोड मुझे चल देता है । मैं आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥ मैं शान्त निराकुल चेतन हू, है मुक्तिरमा सहचर मेरी । यह मोह तडक कर टूट पडे, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य मोक्षफल प्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा ||८|| क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है । काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनद अमृत पीता है ||
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अनुपम सुखतब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है । दशन वल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है || यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्ध बनाऊँगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाऊँगा || ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्यो ऽनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
स्वतन
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बारह - भववन मे जीभर घूम चुका, कण-कण को जीभर-भर देखा । भावनाये मृग- सम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ॥ अनित्य – झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाये । तन जीवन योवन अस्थिर है, क्षणभंगुर पल मे मुरझाये ॥ अशरण - सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या । अशरण मृतकाया मे हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ।।
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ससार – ससार महादुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासो मे । मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कचन कामिनि प्रासादो मे । एकत्व- मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते 1 तन धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड चले जाते । अन्यत्व - मेरे न हुये मैं इन से अति भिन्न अखण्ड निराला 1 निज मे पर से अन्यत्व लिये, निज समरस पीने
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