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श्रवण सुखद सुनि बात नृपति की सेवक घरको भागा है, खुशी खुशी मे नीद न आई सारी निशिभर जागा है । होत प्रभात छ बजे सेवक राजा के घर आया है, राजा ने भी रत्नराशि वाला कोठा खुलवाया है ||३|| हुक्म दिया चपरासी को चाहे जितना ले जाने दो, किन्तु नौ बजे बाद इसे इक पाई भी न उठाने दो । करि प्रवेश रत्नालय मे सेवक ने क्या क्या देखा है, -हीरा मोती लाल जवाहर पड़े असख्य न लेखा है ॥४॥ ओर गौर करि इधर उधर देखा तो अजब तमाशा है, भांति भांति के खेल खिलौने चिडिया घर ये खासा है । उलट पलट करि लगा देखने यह घटिया ये आला है, नौ बज गये टना टन चपरासी ने आनि निकाला है ||५|| बोला चपरासी से में कुछ भी नहीं लेने पाया हूँ, * एक पुटलिया बाँध लैन दो आशा करके आया हू । चपरासी कैसे मान जब हुक्म दिया राजा जी ने, "खेल तमासो मे खोये घटा तीनों इस पाजी ने ॥ ६ ॥ रोता गया नृपति पै हे प्रभु में ने कुछ नहि पाया है, खेल खिलौनो मे शुभ अवसर सारा व्यर्थ गमाया है । बोला नृप कुछ बात नही चपरासी को बुलवाता हूँ, दूजा कोठा सौने का ततकाल तुम्हे खुलवाता हूं ॥७॥ एक पहर मे जितना ढो सकते हो ढो ले जाओगे, बारे बजे बाद रत्ती भर भी नहि लेने पाओगे | -सुनकर हुआ प्रसन्न कोठरा सोने का खुल जाता है, -सेवक भीतर धसा स्वर्ण के ढेर देखि हर्षाता है ||८|| आगे देखा महिलायें स्वागत करने कुछ आती हैं, शची अप्सरा रति रम्भा सी हँसि हँसि चित लुभाती हैं ।