Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 159
________________ (१५६ ) जवान, वृद्ध इत्यादि अनेक रूप शरीर की ही अवस्थाये हैं तथा धनवानपना, दासपना, राजापना ये सभी औपाधिक भाव विडम्बना है-उपाधि है, वे कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है, मेरे शुद्ध ज्ञायक स्वरूप मे ये कुछ भी शोभता नही ॥४॥ स्पर्श गन्ध वरनादि नाम, मेरे नाहीं मै ज्ञानघाम । मैं एकरूप नहिं होत और, मुझ में प्रतिबिम्बित सफल नर ॥॥ अर्थ:-स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण आदि अथवा व्यवहार नाम आदि मेरे नहीं, ये सभो तो पुद्गल द्रव्य के हैं, मैं तो ज्ञान धाम हूँ. मैं तो सदाकाल एकरूप रहने वाला परमात्मा हूँ, अन्यरूप कभी भी नहीं होता। मेरे ज्ञान दर्पण मे तो समस्त पदार्थ प्रतिविम्बित होते है ॥५॥ तन पुलकित उर हरषित सदीव, ज्यो भई रंकगह निधि अतीव । जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय, तब चित परिणति ऐसी उपाय ॥६॥ ___ अर्थ :--ऐसा भेदविज्ञान पूर्वक सम्यक श्रद्धान होने पर जीव सदा ही अतिशय प्रसन्न होता है, आनन्दित होता है। हृदय में निरन्तर हर्ष वर्तने से शरीर भी पुलकित हो जाता है। जिस प्रकार दरिद्री के घर मे अत्यधिक धन-निधि के प्रगट होने पर वह प्रसन्न होता है। उसी प्रकार यह सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर मे निजानन्द मूर्ति भगवान आत्मा को देखकर प्रसन्न होता है। ऐसा सम्यकदर्शन हो जाने पर जब तक अप्रत्याख्यान कषाय की प्रबलता रूप उदय रहता है तब तक उस सम्यग्दृष्टि की चित्त परिणति कसो होती है-उसे अब यहां पर कहते हैं । सो सुनो भव्य चितधार कान, वरणत हूं ताकी विधि विधान । सब फर काज घर माहि वास, ज्यो भिन्न कमल जल मे निदास ॥७॥ अर्थ :-हे भव्य जीवो | तुम चित्त लगाकर उस भेद-विज्ञानी की परिणति को सुनो । उस अविरत सम्यका दृष्टि के विधि-विधान का में वर्णन करता हूँ। स्वानुभव बोध का जिमे लाभ हुआ है। ऐसा वह जीव घर कुटुम्ब के बीच मे रहता है तथा सभी गृहकार्य, व्यापार

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