Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 164
________________ ( १६४ ) बन्दत हैं अरिहन्त, जिन मुनि जिन सिद्धान्त को । न नवे देख महन्त, कुगुरु कुदेव कुधर्म को ॥ ॥ अर्थ :- सम्यग्दृष्टि जीव अरिहन्त जिनदेव, जिन मुद्राधारी मुनि और जिन सिद्धान्त को ही वन्दन करता है, परन्तु कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को चाहे वे लोक मे कितने ही महान दिखाई देते हो तो भी उन्हें बन्दन नही करता है - इस प्रकार ज्ञानी जीव को तीन मूढताओ का अभाव होता ही है || Ell कुत्सित आगम देष, कुठिसत गुरु पुनि सेवकी । प्रशंसा यो षट भेव, करै न सम्यक वान हैं ॥१०॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टि जीव कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरु सेवक, कुदेवा सेवक तथा कुधर्म सेवक -यह छह अनायतन दोष कहलाते हैं । उनकी भक्ति - विनय और पूजनादि तो दूर रही, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव उनकी प्रशसा भी नही करता, क्योकि उनकी प्रशसा करने से भी सम्यक्त्व मे दोष लगता है । - इस प्रकार शकादि आठ दोष, आट मद, तीन मूढता और छह अनायतन-ये पच्चीस दोष जिसमे नही पाये जाते वह जीव सम्यग्दृष्टि है ॥ १० ॥ - प्रगटो ऐसो भाव कियो अभाव मिथ्यात्व को । बन्दत ताके पाँय, 'बुधजन' महे मन वच कायते ॥ ११॥ अर्थ - जिस जीव ने ऐसा निर्मल भाव प्रगटाया है और मिथ्यात्वा - का अभाव किया है-उस ज्ञानी के चरणो की में (बुधजन ) मनवचन काया स वन्दना करता हूँ ॥ ११ ॥ ( चौथी ढाल का सारांश आठ मद, तीन मूढता, छह अनायतन और शकादि आठ ये सम्यक्त्व के पच्चीस दोष है । तथा नि शकितादि आठ सम्यक्त्व के गुण है । उन्हे भली भान्ति जानकर दोष का त्याग और गुणो क प्रहण करना चाहिये ।

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