Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 165
________________ ( १६५ ) पांचवी ढाल श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन तिथंच मनुज दोई गति मे, व्रत धारक श्रद्धा चित मे सो अगलित नीर पीवै, निशि भोजन तजत सदोवै ॥२॥ अर्थ -सम्दर्शन सहित व्रत धारण करने वाले सयमी जीव तिर्यंच और मनुष्य इन दो गति मे ही होते हैं। वे अणुव्रत घारी श्रावक विना छना हुआ पानी नहीं पीते और रात्रि भोजन भी सदा के लिये छोड देते हैं ॥१॥ मख अभक्ष वस्तु नहि लावै,जिन भक्ति त्रिकाल रचा। मन वच तन कपट निवार, कृत कारित मोद संवारे ॥२॥ अर्थ -मुख मे कभी भी अभक्ष वस्तु नही लाते, सदैव जिनेन्द्र देव की भक्ति में अपने को लीन रखते है, मन-वचन काया से माया. चारी छोड़ देते है और पाप कार्यो को न स्वय करता है, न कराता. और न उनको अनुमोदना करता है ।।२।। जैसी उपशमत कषाया, तैसा तिन त्याग कराया। कोई सात व्यसन को त्यागै, कोई अणुव्रत में मन पागे ॥३॥ अर्थ -उस आत्मज्ञानी सम्यग्दष्टि को जितनी-जितनी फपाये उपशमती जाती हैं, उतने-उतने प्रमाण मे उसको हिंसादि पापो का त्याग होता जाता है। कोई-कोई तो सात व्यसन का सर्वथा त्याग कर देते हैं और कोई-कोई अणुव्रत धारण करके शुभाशुभभावो से रहित तप मे लग जाते है ॥३॥ त्रस जीव कभी नहि मोरे, विरथा यावर न संहारै। परहित बिन झूठ न बोले, मुख साँच बिना नहिं खोले ॥४॥ अर्थ :--ऐसे श्रावक त्रस जीवो को कभी नही मारते और स्थावर जीवो का भी निष्प्रयोजन कभी भी सहार नहीं करते। पर हित ,

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