Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 162
________________ ( १६२) तत्त्वचर्चा, सत्समागम तथा यथार्थ तत्त्व विचार द्वारा निश्चय सम्यका दर्शन प्राप्त करना चाहिये, क्योकि यदि इस मनुष्य भव में 'निश्चय सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया तो पुन मनुष्य पर्याय को प्राप्ति आदि का मुयोग मिलना कठिन है ।। चौथी ढाल सम्यग्दर्शन के गुणो का वर्णन ऊग्यो आतमसूर, दूर भयो मिथ्यात तम । अब प्रगटो गुण भूर, तिनमे फछु इफ कहत हैं ॥१॥ अर्थ :--सम्यक्त्व होते ही आत्मारूपी सूर्य उदित हो गया और मिथ्यात्व रूपी अन्धकार दूर हुआ, वही पर अनन्त गुणो का समूह भगवान आत्मा भी प्रगट हो गया, उनमे से कुछ एक गुणो को यहाँ पर कहता हूँ ॥११॥ शका मन मे नाहि, तत्त्वारथ तरधान में। निरवाछित चित माहि, परमारथ मे रत रहै ॥२॥ नेक न करत गिलान, वाह्य मलिन मुनि तन लखे। नाही होत अजान, तत्त्व कुतत्त्व विचार में ॥३॥ उर मे दया विशेष, गुण प्रकट औगुण ढके। शिथिल धर्म मे देख, जैसे तैसे द्रढ कर ॥४॥ साधर्मो पहिचान, कर प्रीति गोवत्स सम। महिमा होत महान, धर्म काज ऐसे करै ॥५॥ अर्थ :-ऐसे आत्मज्ञानी जीव के मन में कभी भी (१) तत्त्वार्य श्रद्धान मे शका नहीं होती, मुक्ति मार्ग साधने मे रत रहते हैं । (२) चित्त मे दूसरी अन्य कोई बाछा नही होती है। (३) मुनिजनों के देह की मलिनता देखकर जरा भी ग्लानि नही करते हैं। (४) सत्त्व और कुतत्त्व के निर्णय मे मूर्ख नही रहते हैं। (५) अन्तर

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