Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 158
________________ ( १५८ ) तीसरी ढाल सम्यक्त्व का वर्णन इस विध भव वन के माहि जीव, वश मोह गहल सोता सदीव । उपदेश तथा सहजै प्रबोध, तव ही जागै ज्यों उठत जोग ॥१॥ ___ अर्थ-इस प्रकार ससार रूपी वन मे मोह वश पडा जीव बेसुध होकर सदा गहरी निन्द्रा मे सोया हुआ है। परन्तु जव आत्मज्ञानी गुरु के उपदेश से अथवा पूर्व सस्कार के वल से वह मोह निन्द्रा से जागा । जिस प्रकार रण मे मूछित हुआ योद्धा फिर से जाग गया हो, उसी प्रकार यह ससारो जीव मोह निन्द्रा दूर करके जाग गया ॥१॥ जब चितवत अपने माहि आप, हूँ चिदानन्द नहीं पुन्य पाप । मेरो नाहि है राम भाव, यह तो विधि वश उएज विभाव ॥२॥ ____ अर्थ-आत्मभान करके जब यह ससारी मोही जीव जाग गया तब ही अपने अन्तरग मे अपने स्वरूप का ऐसा चिन्तवन करने लगा कि "मैं चिदानन्द हूँ, पुन्य-पाप मैं नही हूँ, रागभाव भी मेरा स्वभाव नही है, वह तो कर्मवश उत्पन्न हुआ विभाव भाव है" ॥२॥ हूँ नित्य निरजन सिद्ध समान, ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान । निश्चय सुघ इक व्यवहार भेव, गुणगुणी अंग अगी अछेव ।।३॥ ___ अर्थ :-मैं सिद्ध समान मित्य अविनाशी जीव तत्त्व है, द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकम से रहित हूँ । ज्ञानावरणी कर्म के उदय से मेरा ज्ञान अप्रगट है। निश्चय से मैं अतीन्द्रिय महापदाथ हूँ, गुण-गुणी भेद अथवा अश-अशी भेद आदि सर्व भेद कल्पना तो व्यवहार से है। मैं तो अभेद हूँ ॥३॥ मानुष सुर नारक पशु पर्याय, शिशु युवा वृद्ध बहुरूप फाय। धनवान दरिद्री दास राय, ये तो विडम्ब मुझको न भाय ॥४॥ अर्थ :--तथा मनुष्य-देव नारको व पशु पर्याय अथवा बालक,

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