Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 157
________________ ( १५७ ) उबलना, टुकडे-टुकडे कर डालना आदि अपार दुख उठाते हैं- ऐसी वेदनाये निरन्तर सहना पडती हैं । तथापि क्षणमात्र साता नही मिलती, क्योकि टुकडे टुकडे हो जाने पर भी शरीर पारे की भान्ति पुन. मिलकर ज्यों का त्यो हो जाता है । वहाँ आयु पूर्ण हुये बिना मृत्यु नही होती । नरक में ऐसे दुख कम से कम दस हजार वर्ष तक तो सहना ही पडते हैं, यदि उत्कृष्ट आयु का वध हुआ तो तैतीस सागरोपम वर्ष तक शरीर का अन्त नही होता । मनुष्यगति के दुखो का वर्णन :- किसी विशेष पुण्यकर्म के उदय से यह जीव जब कभी मनुष्य पर्याय प्राप्त करता है तब नौ महीने तक तो माता के उदर में ही पड़ा रहता है, वहाँ शरीर को सिकोडकर रहने से महान कष्ट उठाना पडता है । वहाँ से निकलते समय जो अपार वेदना होती है उसका तो वर्णन भी नही किया जा सकता । फिर बचपन मे ज्ञान बिना, युवावस्था मे विषय भोगो मे आसक्त रहने ये तथा वृद्धावस्था मे इन्द्रियो की शिथिलता अथवा मरण पर्यन्त क्षयरोग आदि मे रुकने के कारण आत्मदर्शन से विमुख रहता है और धामोद्वार का मार्ग प्राप्त नही कर पाता । देवगति के दुखो का वर्णन :-- यदि कोई शुभकर्म के उदय से देव भी हुआ, तो दूसरे बडे देवो का वैभव और सुख देखकर मन ही मन मे दुखी होता रहता है । कदाचित् वैमानिक देव भी हुआ, तो वहां भी सम्यक्त्व के बिना आत्मिक शांन्ति प्राप्त नही कर पाता । तथा अन्त समय मे मन्दार माला मुरझा जाने से, आभूषण और शरीर की कान्ति क्षीण होने से मृत्यु को निकट आया जानकर महान दुःख होता है और बर्त्तध्यान करके हाय-हाय करके मरता है । फिर एकेन्द्रिय जीव तक होता है अर्थात् पुन तिर्यन्च गति मे जा पहुचता है । इस प्रकार चारो गतियो मे जीव को कही भी सुख-शान्ति नही मिलती । इस प्रकार अपने मिथ्यात्व भावो के कारण ही निरन्तर ससारच मे परिभ्रमण करता रहता है । 01

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