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(६६) किया तो भी वाहुवली ने गर्व न करके निजध्यान मे तत्पर होकर तत्क्षण ही केवल ज्ञान उपजाया। निर्मल भेदज्ञान से जिसने सारे जगत को अपने से भिन्न स्वप्नवत् देख लिया है,और जो यात्मभावना मे तत्पर है उस को जगत के किसी भी पदार्थ मे गर्व का अवकाश ही कहा है ? रत्नत्रयकी आराधना मे ही जिसका चित्त तत्पर है ऐसे मुनि भगवतो को चक्रवर्ती नमस्कार करे तो भी मान नहीं होता, और कोई तिरस्कार करे तो दीनता भी नही होती; ऐसे निर्मान मुनि भगवतो को नमस्कार हो।
पचपरमेष्टी आदि धर्तात्मा गुणीजनो के प्रति बहुमान पूर्वक विनयप्रवर्तन यह भी मार्दव धर्म का एक प्रकार है।
३. उत्तम आर्जव धर्म की आराधना उत्तम मार्जव कपट मिटावे, दुरगति त्याग सुगति उपजाये ।
जो भवभ्रमण से भयभीत है और रत्नत्रय की आराधना मे तत्पर हैं ऐसे मुनिराज को अपनी रत्नत्रय की आराधना मे लगे हुए छोटे या बडे दोष को छिपाने की वति नही होती, किन्तु जैसे माता के पास मे बालक सरलता मे सब कह दें वैसे गुरु के पास जाकर अत्यन्त सरलता से अपना सर्बदोप प्रगट करते है, और इस प्रकार अति सरल परिणाम से आलोचना करके रत्नत्रय मे लगे हुए दोपो को नष्ट करते है। एव गुरु वगैरह के उपकार को भी सरलता से प्रसिद्ध करते हैं। ऐसे मुनिवरो को उत्तम आर्जवधर्म की आराधना होती है। ऐसे आर्जवधर्म के आराधक सन्तो को नमस्कार हो ।
४. उत्तम शौचधर्म की आराधना उत्तम शौच लोभ परिहारी, सतोषी गुन रतन भडारी॥
उत्कृष्टतया लोभ के त्यागरूप जो निर्मल परिणाम वही उत्तम शौचधर्म है । भेद ज्ञान के द्वारा जगत के समस्त पदार्थों से जिसने