Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 144
________________ ( १४४ ) तू स्व पर स्वरूप सुझावे, सिद्धान्तो का मर्म बतावे । तू मेटे सर्व असाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ||४|| शुद्धात्म तत्व दिखावे, रत्नत्रय पथ प्रगटावे | ॥५॥ निज आनन्द अमृतदाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम हे मात ? कृपा अब कीजे, परभाव सकल हर लीजे । 'शिवराम' सदा गुण गाता तुमको लाखो प्रणाम, तुमको लाखो प्रणाम ॥६॥ कविवर बुधजन कृत छहढाला मगलाचरण सर्व द्रव्य मे सार, आतम को हितकार है । नमों ताहि चितधार, नित्य निरंजन जानके ॥ अर्थ - जो समस्त द्रव्यो मे सार है एव आत्मा को हितकार है, ऐसे नित्य निरजन स्वरूप को जानकर उसे चित्त में धारण करके मैं नमस्कार करता हू | भावार्थ - ज्ञानी महापुरुषार्थवान है, क्योकि वे ससार शरीर और भोगो से अत्यन्त विरक्त होते हैं, और जिस प्रकार कोई माता पुत्र को जन्म देती है, उसी प्रकार यह बारह भावनायें वैराग्य उत्पन्न करती हैं, इसीलिये ज्ञानी इन बारह भावनाओ का चिन्तवन करते हैं। जिस प्रकार वायु लगने से अग्नि एकदम भभक उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओ का बारम्बार चिन्तवन करने से समता रूपी सुख बढ जाता है । जब यह जीव आत्म स्वरूप को जानता है तब पुरुषार्थं बढाकर पर पदार्थों से सम्बन्ध छोड़कर परमानन्दमयी स्वरूप मे लीन होकर समता रस का पान करता है और अन्त मे मोक्ष सुख प्राप्त करता है ।

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