Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 146
________________ ( १४६ ) आत्मा निश्चय से मरता ही नही है, क्योकि वह अनादि अनन्त हैऐसा स्वोन्मुखता पूर्वक चिन्तवन करके ज्ञानी जीव वीतरागता की वृद्धि करता है वह "अशरण भावना" है ॥२॥ ३. संसार भावना यो संसार असार महान, सार आप में आपा जान । सुख से दुख, दुख से सुख होय, समता चारों गति नहिं कोय ॥३॥ अर्थ-हे भाई । इस प्रकार यह ससार अत्यन्त असार है, उसमे अपना आत्मा ही मात्र सार है। ससार मे सुख के पश्चात दुःख एव दुःख के पश्चात सुखरूप आकुलता होती ही रहती है। चारो गतियो मे कही भी लेशमात्र सुख शान्ति नहीं है। ____ भावार्थ-जीव की अशुद्ध पर्याय वह ससार है । अज्ञान के कारण जीव चारो गतियो मे दुख भोगता है और पांच परावर्तन करता रहता है किन्तु कभी शान्ति प्राप्त नहीं करता; इसलिये वास्तव मे ससारभाव (शुभाशभाव) सर्व प्रकार से सार रहित है, उसमे किंचित् मात्र सुख नहीं है, क्योकि जिस प्रकार सुख की कल्पना की जाती है वैसा सुख का स्वरूप नही है और जिसमे सुख मानता है वह वास्तव मे सुख नही है किन्तु वह पर द्रव्य के आलम्बन रूप मलिनभाव होने से आकुलता उत्पन्न करने वाला भाव है । निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्र व स्वभाव मे ससार है ही नही-ऐसा स्वोन्मुखता पूर्वक चिन्तवन करके ज्ञानी जीव वीतरागता में वृद्धि करता है वह 'ससार भावना" है ॥३॥ ४. एकत्व भावना अनन्तकाल गति यति दुख लहो, बाकी काल अनन्तो कहो । सदा अकेला चेतन एक, तो माहीं गुण वसत अनेक ॥४॥ अर्थ-हे भाई । इस जीव ने अनादिकाल से चारो ही गतियो मे दुख ही पाया और बाकी अनन्तकाल पर्यन्त चारो गतियां रहने वाली

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