Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal
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( १११ )
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है न ? रे जीव ! मनुष्यभव प्राप्त करके रोना क्यो रोया करता है ? अब सत्समागम से आत्मा की पहिचान करके आत्मानुभव कर । इस प्रकार समयसार प्रवचनो मे बारम्बार - हजारो वार आत्मानुभव करने की प्रेरणा की है । जैनशास्त्रो का ध्येय बिन्दु ही आत्मस्वरूप फी पहिचान कराना है ।
'अनुभवप्रकाश' ग्रन्थ मे आत्मानुभव की प्रेरणा करते हुए कहा है कि कोई यह जाने कि आज के समय मे स्वरूप की प्राप्ति कठिन है, तो समझना चाहिये कि वह स्वरूप की चाह को मिटाने वाला बहिरात्मा है | जब फुरसत होती है तब विकथा करने लगता है । उस समय यदि वह स्वरूप की चर्चा - अनुभव करे तो उसे कौन रोकता है ? यह कितने आश्चर्य की बात है कि वह पर परिणाम को तो सुगम और निज परिणाम को विषम समझता है । स्वयं देखता है, जानता है तथापि यह कहते हुए लज्जा भी नही आनी कि आत्मा देखा नही जाता || जिसका जयगान भव्य जीव गाते हैं, जिसकी अपार महिमा को जानने से महा भव-भ्रमण दूर हो जाता है और परम आनन्द होता है ऐसा यह समयसार अधिकार को (शुद्ध आत्मस्वरूप) जान लेना चाहिये ।
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यह जीव अनादिकाल से अज्ञान के कारण परद्रव्य को अपना करने के लिए प्रयत्न कर रहा है और शरीरादि को अपना वनाकर रखना चाहता है, किन्तु पर द्रव्य का परिणमन जीव के अधीन नहीं हैं । इसलिये अनादि से जीव के ( अज्ञानभाव) के फल मे एक परमाणु भी जीव का नही हुआ । अनादिकाल से देहदृष्टि पूर्वक शरीर को अपना मान रखा है किन्तु अभी तक एक भी रजकण न तो जीव का हुआ है और न होने वाला है, दोनो द्रव्य त्रिकाल भिन्न हैं । जीव यदि अपने स्वरूप को यथार्थ समझना चाहे तो वह पुरुषार्थ के द्वारा अल्पकाल मे समझ सकता है । जीव अपने स्वरूप को जब समझना चाहे तब समझ सकता है । स्वरूप के समझने मे अनन्तकाल नहीं

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