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(६२) मगग नहीं मैं प नहीं में मोह नहीं में सोम नहीं । मेनका धारपिता पर्ता का अनुमन्ता न पाहीं। ममहज शुक्ष चैतन्य विमाती पर भावों में निप्रिय हैं। में जात्मदेव चन्य पुजधर दर्शन दूत अतीन्द्रिय है। में लोप नहीं में मान नहीं मनारा बचदा लोग नहीं । मैं उनमा पार्ता पारपिता पर्ता का अनुमन्तान पही।। पतत्व माल पार अनाय मुमो तो बच नहीं। रगगध रपशं स्पादित से मेरा मुछ भी सम्प नहो।। में प्रतिभूत सुगमा स्यामी जपान में किया। में मानदेव चतन्य पुष्प वन सून मीन्द्रिय ।। मे प्रकृति प्रदेश स्थिति बध अनुभाग बघ के पास नहीं । औदारिफ आहारफ तेरस पार्माण पन्धित बान ही। ये सब पहगत द्रव्यात्मक इनरी तो आत्म प्रकान नहीं। ऐसा दृढ निश्चय दिये मिना सन्तान दमा का नाम नही ।। मैं जान गिन्धु परिपूर्ण शुरु निर्माण मुन्दरीको नियन मैं जानदेव चैतन्य पुजा ध्रुव शंन मन अतीन्द्रिय ।। * भा7 निपन्न देवा हम निक
आत्मदेव का आश्रय हो जग मे तार । पूर्ण शुद्ध चैतन्य घन मगलमय शिवकार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्प- ही भी गुहाग ने पाय नम
• (३१) समक्षुओं के लिए खुला पत्र
तीन लोक तिहु काल मांहि नहि दर्शन नो नुनकारो, सफल धर्म को मूल यही, इस विन करनी दुखकारी ।। मोक्षमहलकी परथम सीढी या विन ज्ञान चरित्रा, सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।