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( ३३ ) (११) श्री पंच परमेष्ठी पूजन
(राजमल पवैया) अर्हत सिद्ध आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन । जय पच परम परमेष्ठी जय, भव सागर तारण हरि नमन ।। मन वच काया पूर्वक करता, हू शुद्ध हृदय से आह्वान । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवान ।। निज आत्म तत्त्व की प्राप्ति हेतु, ले अष्ट द्रव्य करता पूजन । तुम चरणो की पूजन से प्रभु, निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ।। ॐ ह्री श्री अरहत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु पच परमेष्टिन् । अन्न अवतर अवतर सवौपट आह्वानन । अत्र तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अन्न मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरण । मै तो अनादि से रोगी हू, उपचार कराने आया है। तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भर कर लाया हू।। मैं जन्म जरा मृत नाश करूं, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी ।
हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दु ख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्री श्री पच परमेष्ठिभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल निर्वामिति स्वाहा।
ससार ताप मे जल-जल कर, मैंने अगणित दुख पाए है। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाए है ।। शीतल चन्दन है भेंट तुम्हे, ससार ताप नाशो स्वामी।
हे पच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्री पच परमेष्ठिभ्यो मनारताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा। दुखमय अथाह भव सागर मे, मेरी यह नौका भटक रही। शुभ-अशुभ भाव की भवरो मे, चैतन्य शक्ति निज अटक रही ।।