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मन आत्मा से जोड कर, बच तन से मन भिन्न । बचन काय व्यापार मे, जोडे बहिं चैतन्य ॥४८॥ 'गिर्ने रम्य जग से रहे, बहिर्द ष्टि को आश । स्वात्म दृष्टि कैसे करे, जग मे रति विश्वास ॥४६॥ नहिं चिर रखिये बुद्धि मे, कार्य ज्ञान विपरीत। बचन काय आसक्ति बिन, करिये तो यह रीति ॥५०॥ इन्द्रिय गम्य जगत प्रगट, मम स्वरूप है नाहिं। मैं हू आनन्द ज्योति जो भासे अदर माँहिं ॥५१॥ बाहर सुख दुख आत्म मे, आरभी की दृष्टि । बाहर सुख, दुख आत्म से, देखे योग प्रविष्ट ॥५२।। कथन, पृच्छना, कामना, निज स्वरूप की होय । बहिर्दृष्टि क्षय, हो गमन, परमात्मा की ओर ॥५३।। तन-वच-तन्मय भूल चित् जुड़े बचन तन सग। भ्रांति रहित तन बचन से चित को गिने असग ॥५४॥ इन्द्रिय विषयो मे न कुछ, आत्म लाभ की बात । तो भी मूढ अज्ञान वश रमता इनके साथ ॥५५।। मोही मुग्ध कुयोनि मे है अनादि से सुप्त । जागे तो परको गिने आत्मा होकर मुग्ध ॥५६।। हो सुव्यवस्थित आत्म मे निज काया जड जान । पर-काया मे भी करे जड की ही पहिचान ॥५७॥ कहू ना कहू मूढ जन, नहिं जाने ममरुप। 'विज्ञापन का श्रम वृथा, खोना समय अनूप ॥५८॥ समझाना चाहू जिसे वह नहिं मेरा रूप । नही अन्य से ग्राह्य मे, किम समझाऊँ रुप ॥५६॥