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( ६६ ) भ्रम तज नर उस स्तम्भ का, नहि होता हैरान । त्यो तनादि मे भ्रम हटे, नहिं पर मे निजभान ॥२२॥ आत्म को अपनी गिर्ने, नहि नारी, नर षढ । नही एक या दो बहुत, मैं हूँ शुद्ध अखड ।।२३।। बोघि बिना निद्रित रहा, जगा लखा चैतन्य । इन्द्रिय बिन अवयक्त हूँ हूँ मैं अपने गम्य ॥२४॥ जब अनुभव अपना करूँ, हो अभाव रागादि । मैं ज्ञाता मेरे नही, कोई अरि-मित्रादि ।२५॥ जो मुझको जाने नही, नही मेरा अरि मित्र। जो जाने मम आत्म को नही शत्रु नहिं 'मित्र ॥२६॥ यो बहिरातम दृष्टि तज, हो अन्तर-मुख आत्म । सर्व विकल्प विमुक्त हो, ध्यावे निज परमात्म ॥२७॥ 'मैं ही वह परमात्मा हूँ' हो जब दृढ सस्कार । इन दृढ भावो से बने, निश्चय उस आकार ॥२८॥ मोही की आशा जहा, नहिं वैसा-भय स्थान । जिसमे डर उस सम नही, निर्भय आत्म-स्थान ॥२६॥ इन्द्रिय विषय विरक्त हो, स्थिर हो निजमे आत्म। उस क्षण जो अनुभव वही, है निश्चय परमात्म ॥३०॥ मैं ही वह परमात्म हूँ, हूँ निज अनुभव गम्य । मैं उपास्य अपना स्वय, है निश्चय नहिं अन्य ॥३१॥ निजमे स्थित निज आत्म कर, कर मन विषायातीत । पाता निजबल आत्म वह परमानन्द पुनीत ॥३२॥ तन से भिन्न-गिने नही, अव्यय रूप निजात्म। करे उग्र तप मोक्ष नहिं, जब तक लखे न आत्म ॥३३।। भेद ज्ञान बल है जहाँ, प्रकट आत्म आल्हाद । हो तप दुष्कर घोर पर, होता नही विषाद ॥३४॥