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सुख दुख केवल देह की, मात्र वासना जान । करे भोग भी विपत्ति मे व्याकुल रोग-समान ॥६॥ ज्ञान मोह-सवृत्त को, नहिं स्वरूप पहिचान । ज्यो कोदो से मत्तनर, खो देता सव भान ॥७॥ तन, घर, धन, तिय, मित्र, अरि, पुत्र आदि सब अन्य । पर स्वभाव से मूढ नर, माने उन्हे अनन्य || चहुदिशि से आकर विहग, रैन बसे तस्-डाल । उड प्रात निज कार्य वश, यही जगत-जन-चाल | त्रास दिया तव त्रस्त अव, क्यो हता पर क्रोध ? अगुल गिरा स्वय गिरे, हो जब दण्ड प्रयोग ।।१०।। रागद्वेष रस्सी बघा, भव-सर घूमे आप। आत्म-भ्रान्ति वश आपही, सहे महा सताप ॥११॥ विपदा एक टले नही, वाट बहुत सी जोय । रहँट बँधा घट रुपमे, कभी न खाली होय ॥१२॥ अर्जन रक्षण है कठिन, फिर भी सत्वर नाश । रे । धनादि का सुख यया, घृत से ज्वर ना नाश ॥१३॥ कष्ट अन्य के देखता, पर अपनी सुध नाहिं । तरु पर बैठा नर कहे, हिरण जले वन माँहि ॥१४॥ आयु-क्षय,धन-वृद्धि का, कारण जानो काल । धन प्राणों से प्रिय लगे, अत• धनिक बेहाल ॥१॥ निर्धन धन चाहे कहे, करूँ पुण्य दं दान । कीच लिपे पर मानता, मृढ किया मैं स्नान ।।१६।। सतापज मारम्भ मे, प्राप्ति समय अतृप्ति । भोग-त्याग अन्तिम कठिन, सुधि छोड आसक्ति ॥१७॥ हो जाते शुचि भी अशुचि, जिसको छकर अर्थ । काया है अति विघ्न मय, उस हित भोग अनर्थ ॥१८॥