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आत्मा से अन्यत्र नहिं, कायादिक मे वृत्ति । रमे न पर-पर्याय मे, वधे न किन्तु विमुक्त ॥४४॥ पर तो पर है दुखद है, आत्मा सुख मय आप । योगी करते हैं अत. निज-उपलब्धि प्रयास ॥४५॥ करता पुदगल द्रव्य का, अज्ञ समादर आप। सजे न चतुर्गति मे अत., पुद्गल. चेतन-साथ ॥४६॥ -ग्रहण-त्याग व्यवहार विन, जो निजमे लवलीन । होता योगी को कोई, परमानन्द नवीन ॥४७॥ साधु बहिर्दु ख मे रहे, दुख सवेदन हीन । करते परमानन्द से, कम धन प्रक्षीण ॥४८॥ करे अविद्या-ताश वह, ज्ञान ज्योति उत्कृष्ट ।। तत्पृच्छा इच्छानुभव, है मुमुक्षु को इष्ट ।।४।। चेतन पुद्गल भिन्न है, यही तत्व सक्षेप। अन्य कथन सब हैं इसी, के विस्तार विशेष ।।५०।। विधिवत नगर विपिन बसे, तज हठ मानामान । भव्य इष्ट उपदेश पढ, ले अनुपम निर्वाण ॥५॥
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(२६) संसार दर्पण
(पं० मक्खन लाल) एक समय एक पथिक विपिन मे राह भूलिकर -फिरता था, सघन वृक्ष फाटकाकीर्ण, निर्जन बन लखिकर डरता था। सिंह भेडिये चीते गज रीछादि जानवर फिरते थे, बन मानुष बाराह जगली शब्द भयानक करते थे ॥१॥