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आकार हैं सबके अलग, हो लीन अपने ज्ञान मे। जानो इन्हे सामान्यगुण, रक्खो सदा श्रद्धान मे ॥६॥ (२०) बारह भावना
(जयचन्द्रजी) अनित्य-द्रव्यरूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन ।
द्रव्यदृष्टि आपा लखो, परजय नय करि गौन ॥१॥ अशरण-शुद्धातम अरु पचगुरु जग मे सरनो दोय ।
मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय ॥२॥ ससार-पर द्रव्यन ते प्रीति जो, है ससार अवोध ।
ताको फल गति चार मे, भ्रमण कह्योश्रुतशोध ॥३॥ एकत्व-परमारथ ते आतमा, एक रूप ही जोय ।
कर्म निमित्त विकलप घने, तिन नाशे शिव होय ॥४॥ अन्यत्व-अपने-अपने सत्व कं सर्व वस्तु विलसाय ।
ऐसें चितवं जीव जब, परते ममत न थाय ॥५॥ अशुचि-निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह ।
जानि भव्य निज भाव को, चासो तजो सनेह ॥६॥ आलव-आतम केवल ज्ञान मय, निश्चय दृष्टि निहार ।
सब विभाव परिणाम मय बासव भाव विडार ॥७॥ संवर-निज स्वरूप में लोनता, निश्चय संवर जानि ।
तमिति गुप्ति सजम धरम धरै पाप की हानि ॥८॥ निर्जरा-संवर मप है सातना. पूर्द कर्म झड़ जाय ।
निलस्वरूप को पापकर, लोक शिखर जब थाय ॥६॥ लोक-लोक स्वरूप विचार, भातम रूप निहार।
परमारप बदहार पुषि, मिसालाद तिवारि ॥६॥