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बोधिदुर्लभ - वोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं || भव मे प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहि ॥ ११॥ धर्म-दर्श ज्ञानमय चेतना, आतम धर्म बखानि । दया क्षमादिक रतनत्रय, यामे गर्भित जानि ॥ १२ ॥
(२१) सामायिक पाठ अमितगति आचार्य
( अनुवादक - श्री युगलजी)
प्रम भाव हो सब जीवो से, गुणी जनो मे हर्ष प्रभो । करुणा श्रोत बहे दुखियो पर दुर्जन में मध्यस्थ विभो । १ । यह अनन्त बल-शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो । ज्यो होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको |२| सुख-दुख वैरी वन्धु वर्ग मे, काँच कनक मे समता हो । वन उपवन, प्रासादकुटी मे नही खेद, नहिं ममता हो |३| जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर जीत मोह मान मन्मथ । वह सुन्दर पथ ही प्रभु । मेरा बना रहे अनुशीलन पथ | ४ | एकेन्द्रिय आदिक प्राणी को, यदि मैंने हिंसा की हो । शुद्ध हृदय से कहता हू वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो |५| मोक्ष मार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायो से । विपथ-गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावो से | ६ | चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यो प्रभु | मैं भी आदि उपात । अपनी निन्दा आलोचन से, करता हू पापो को शान्त |७| सत्य अहिंसादिक वृत मे भी, मैंने हृदय मलीन किया । व्रत-विपरीत-प्रवर्त्तन न करके, शोलाचरण विलीन किया |८| कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया । पी पीकर विषयो की मदिरा, मुझमे पागलपन आया ||
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