________________
( ५६ )
मैंने छली और मायावी हो असत्य आचरण किया । पर निन्दागाली, चुगली जो मुँह पर आया वमन किया |१०| निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे । निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय मे निर्मल ज्ञान वहे |११|
मे
मुनि, चकी शक्री के हिय मे, जिस अनन्त का ध्यान रहे । गाते वेद पुराण जिसे वह परम देव मम हृदय रहे |१२| दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने सब विकार हो वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परमदेव मम हृदय रहे | १३ | जो भव दुख का विध्वसक है, विश्व-विलोकी जिसका ज्ञान । योगी-जन के ध्यान गम्य वह बसे हृदय देव महान | १४ | मुक्ति-मार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म मरण से परम अतीत । निष्कलक त्रैलोक्य-दर्शि वह, देव रहे मम हृदय समीप |१५| निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे ना द्वेष रहे । शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वरूपी परम देव मम हृदय रहे । १६ । देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्म कलक विहीन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र |१७| कर्म फलक अछूत न जिसको, कभी छू सके दिव्य प्रकाश । मोह तिमिर को भेद चलाजो, परमशरण मुझको वह आप्त | १८ | जिसकी दिव्य ज्योति के आगे फीका पडता सूर्य प्रकाश । स्वयं ज्ञान मयस्वपर प्रकाशी, परमशरण मुझको वह आप्त ।१९। जिसके ज्ञान रूप दर्पण मे, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ | आदिअतसे रहित, शान्त, शिव, परमशरण मुझकोवह आप्त | २० | जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव । भय-विषाद चिन्ता सब जिसके परमशरणमुझको वह देव | २१ | तृण, चौकी, शिल शैलशिखरनाह, आत्म समाधी के आसन । सस्तर, पूजा सघ सम्मिलन, नही समाधि के साधन | २२ |
T