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( ३२ )
गुरु
ये अर्ध्य समर्पण करके में श्री देवशास्त्र को ध्याऊँ । विद्यमान श्री वीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्र गुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्योऽनर्थ पदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
नसे घातिया कर्म अर्हन्त देवा, करे सुर असुर नर मुनि नित्य सेवा | दरश ज्ञान सुख बल अनन्त के स्वामी, छियालिस गुण युक्त महा ईश नामी ॥ तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वसिनी मोक्ष दानी | अनेकान्तमय द्वादशागी वखानी, नमो लोक माता श्री जैन वाणी ॥ विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश ज्ञान भण्डार समता अराधू । नगन पधारी सु एका विहारी निजानन्द मडित मुकति पथ प्रचारी ॥ विदेह क्षेत्र मे तीथङ्कर बीस राजे, विरहमान वन्दु सभी पाप भाजे । नमू सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ॥
छन्द
देव शास्त्र गुरु वीस तीर्थङ्कर सिद्ध हृदय विच धरले रे । पूजन ध्यान गान गुण करके भवसागर जिय तरले रे || ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थंकरेभ्य, श्रीअनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिस्य अनर्घपदप्राप्तये अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा ।
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भूत भविष्यत् वर्तमान को तीस चोबीसी मैं ध्याऊँ । चैत्य चैत्यालये कृत्रिमाकृत्रिम, तीन लोक के मन लाऊँ ॥ ॐ ह्री त्रिकाल सम्बन्धी तीन चौवीसी त्रिलोक सम्वन्धी कृत्रिमाकृत्रिम - चैत्यालयेभ्य अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
चत्य भक्ति आलोचना चाहू, कायोत्सर्ग बघू नाशन हेत । कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक मे गजत है जिन बिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जने ले, अष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत । निज शक्ति अनुसार जजूं मैं, कर समाधि पाऊँ खेत ॥ (पुष्पाजलि क्षिपेत् )