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तुम बिन अनन्तानन्त काल गयो रूलत जग जाल मे, अव शरण आयो नाथ दुहु कर जोड नावत भाल में । दोहा - कर प्रमाण के मानते, गगननाएँ किहि भत, त्यो तुम गुण वर्णन करत, कवि पावे नहि अत । (पुष्जलि क्षिपेत् )
(१५) विसर्जन पाठ
सम्पूर्ण विधिकर वीनऊँ इस परम पूजन ठाठ मे. अज्ञानवश शास्त्रोक्त विधि ते चूक कोनो पाठ मे । सो होऊ पूर्ण समस्त विधिवत् तुम चरण को शरणते, बन्दो तुम्हे कर जोरि के उद्धार जामन मरण | आह्वानन स्थापनन् तथा सन्निधिकरण विधान जी, पूजन विर्सजन यथाविधि जान नही गुणखान जी । जो दोप लोगो सो नसों सब तुम चरण की शरणते, वन्दो तुम्हे कर जोरि कर उद्धार जामन मरणतै । तुम रहित आवागमन आह्वानन कियो निज भाव मे, विधि यथाक्रम निजशक्ति सम पूजन कियो अति चाव मे । करहू क्षमा मोय भाव ही मे तुम चरण को शरणते, बन्दो तुम्हे कर जोरिकै उद्धार जामन मरणते । दोहा - तीनभुवन तिहुकाल मे तुमसा देव न और, सुख कारन सकटहरन, नमहु युगल कर जोर ।
१६) आत्म सम्बोधन
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समझ उर धर कहत गुरुवर, आत्मचिन्तन की घडी है । भव उदधि तन अथिर नौका, वीच मँझधारा पडी है ॥ टेक ॥ मिस है पृथक् तन-धन, सोचरे मन कर रहा क्या लखि अवस्था कर्मजड की, बोल उनसे डर रहा क्या ? ज्ञान-दर्शन चेतना सम और जग मे कौन है रे ?