Book Title: Jain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Author(s): Rushabhchand Jain
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara
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२५७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
७५२. सहस्त्रनाम
Opening: देखें, क० ७५० । Closing : देखें, क्र० ७५०1 Colophon: इत्याचार्य श्री श्रुतसागर विरचिताया जिनमहस्वनामटीका
यो दशमोध्याय समाप्त ।
___ सवत् -१९८५ वर्षे आपाटमासे सुदी ३ गुरौ श्री मूलमघे भट्टारक श्री विश्वभूषणदेवा. तदतेवासिनः ब्रह्म जो विनयमागर तदतेवामिन भुजवल प्रसाद जैनी लिखितम् । श्री मैनेजर भुजवली जी शास्त्री की सम्मति आदेगानुनार आरा स्थाने ।
७५३. सहस्त्रनाम टीका Opening:
चिनविरचितचित्तचमत्कार स्वर्गायवर्गमास्यदन पारुचारित्रचमत्कृतसकदन. " । Closing : ___.. नाम्नामप्टसहम्प्रेण स्मृतिमात्रेण स्मरणमात्रेण
प्रमाणेन सेवा कतुं इच्छाम प्रमाणेयेंढयसटदधच मायट् प्रत्यया भवति । इत्याचे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते श्रीमहापुराणे श्री पृषभस्तुतेस्टीका
सम्पूर्णा कृता सूरिश्रीमदमरकीर्तिना। Colophon: इति श्री जिनसहस्त्रनामटीका । इद घुटित ५० चिमनरा
मेण लिपि कृतम फतेपुरमध्ये स० १८९७ मश्विन शुक्ल तृतीयाया शुभ भूयात् ।
७५४. सत अष्टोत्तरी स्तोत्र
Opening :
Closing
ओकार गुनि अति अगम, पच प्रमिष्ट निवास । 'प्रथम तासु वदन किये, लहिये ब्रह्म विलास ॥
यह श्री सत्य अठोतरी, कोनी निजहित काज ।
जे नर पठे विवेक सो, ते पावहि मुनिराज ।। इति श्री सत अठोतरी कवित्त बंध सम्पूर्णम् ।
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