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पूर्व पीठिका
प्रेरणा दी। बुद्ध उपासिकाओं का उतना ही आदर करते थे जितना उपासकों का । नारी पर पुरुष की अपेक्षा अधिक मर्यादाएँ आरोपित की गई, जिनकी पृष्ठभूमि तत्कालीन परिस्थितियां थीं। कुछ नियम उनकी सुरक्षा की दृष्टि से भी अनिवार्य कर दिये गये थे। नारी की परिधि पति एवं परिवार के प्रसंग से ही विकसित हुई। कालान्तर में सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक जागृति के आधार पर नारी उन परिधियों से बाहर निकलीं जो उसकी स्वतंत्रता में बाधक थी।११
१.२.२ जैन धर्म में नारी:
जैन धर्म में नारी को पुरुषों की भांति ही धार्मिक अधिकार प्रदान किये गये थे। जहां भगवान बुद्ध ने संशय की स्थिति के उपरान्त पांच वर्ष बाद नारी को दीक्षित किया वहीं भगवान महावीर ने कैवल्य प्राप्ति के बाद गौतम को दीक्षित करने के साथ ही चंदना को भी दीक्षित कर उसे श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी नियुक्त किया। श्रावक एवं श्राविकाओं के लिए समान रूप से बारह व्रतों का विधान किया गया था। उन्नीसवें तीर्थंकर भगवती मल्लि ने तीर्थंकर पद को प्राप्त किया था। पुरुष तीर्थंकर के समान ही कुछ मल्लि द्वारा दीक्षाग्रहण की गई तथा अन्य तीर्थंकरों के समान भगवती मल्ली ने चतुर्विध संघ बनाया। यद्यपि दिगंबर परम्परा स्त्री तीर्थंकर और मुक्ति की अवधारणा स्वीकार नहीं करती। किन्तु पांडव पुराण (पष्ठ ५०६) में उल्लेख है कि राजीमती, कुंती, द्रौपदी
और सुभद्रा ने धर्म का पालन कर स्त्री वेद का नाश किया और १६वें स्वर्ग देव पद को प्राप्त किया तथा बाद में वे सभी पुरुष रूप में उत्पन्न होकर तपस्या कर मोक्ष प्राप्त करेंगी। दिगंबर परंपरा में मल्लि भगवती को भी पुरुष माना जाता है।
श्वेतांबर परंपरा के अनुसार उपरोक्त सभी नारियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है। जो नारी शील धर्म का पालन करती है देवता भी उसको वंदन करते हैं। उस काल में नारी को धार्मिक स्वतंत्रता थी। एक ही राजा की रानियां अलग-अलग धर्म की उपासिकाएं हो सकती थीं, जो धर्मनिष्ठ और विद्वान थीं। आगमों में सुलसा, सुभद्रा, जयन्ति आदि श्राविकाओं के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। जैन धर्म में जहां नारी को पुरुष के समान अधिकार दिये गये हैं, वहीं अनेक ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं जब उसकी निंदा की गई है और उसे मोक्ष मार्ग में बाधक माना गया है। नारी को प्रतीकात्मक दृष्टि से काम का रूप प्रतिपादित किया गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि नारी-मोह से छुटकारा पाने से व्यक्ति कल्याण को प्राप्त होता है।
नारी निंदा के अनेक प्रसंग सूत्रकतांगसूत्र में मिलते हैं। १२ किन्तु प्रसंगों को सम्यक् दृष्टि से देखने पर हम पायेंगे कि नारी की यह आलोचना लोकोत्तर दृष्टि से की गई है। मुनियों को निवृत्ति मार्ग पर स्थित रखने के लिए और पुरुषों को संसार के जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने के लिए है। अतः जैन धर्म में वर्णित नारी की आलोचना केवल नारी के रमणी, कामिनी और पतिता रूप में की गई है। साथ ही साध्वियों के लिए भी पुरुषों से दूर रहने का विधान किया गया है। "साध्वियों के लिए पुरुष का त्याग भी साध्वी जीवन की रक्षा के लिए अनिवार्य माना गया है। अतः जहां नारी को नरक ले जाने वाली कुंजी माना है, वहीं जैन धर्म में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जब राजीमती जैसी नारी ने रथनेमि मुनि को भी संयम धर्म में स्थिर किया था जो अपने पथ से विचलित हो गया था। ब्राह्मी और सुंदरी ने बाहुबली को सन्मार्ग का बोध देकर उनके अहंकार को समाप्त किया था। इस प्रकार नारी को माता, उपासिका, और साध्वी रूप में हमेशा पूजा गया है।१४
प्रश्न उठता है कि जहां पुरुष के लिए पतन का कारण नारी को समझा जाता है, वहां नारी के पतन का कारण पुरुष क्यों नहीं हो सकता? वासना का दास पुरुष भी हो सकता है, केवल नारी ही नहीं। वासनाएं समान रूप से पुरुष और नारी दोनों में होती हैं। अतः केवल एक पक्ष पर दुर्बलता का आरोपण करना सर्वथा अनुचित तथा अवांछित है। जैन धर्म में नारी को आध्यात्मिक क्षेत्र में जितना अधिक महत्व प्रदान किया गया है, उतना प्राचीन संस्कृति में अन्यत्र नहीं मिलता। १.३ जैन धर्म की चतुर्विध संघ व्यवस्थाः
जैन धर्म क्या है? : "जैन” शब्द 'जिन' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'जिन' के ही अन्य सम्मानसूचक नाम हैं देवाधिदेव, जिनेश्वर, जिनेंद्र आदि। जिन के उपासक जैन कहलाते हैं। इन्हीं को पूज्य अर्थ में लेने पर अर्हत् या अर्हन्त रूप बनते हैं। इसी अर्हत् शब्द के प्राकृत रूप अरिहंत अरहंत अरूहंत आदि हैं "अरिहंत" शब्द से यह अर्थ निकलता है यथा “अरि" अर्थात् विषय, वासना, कषाय आदि आंतरिक शत्रुओं का "हन्त" अर्थात् नाश करने वाले । आत्मा के शत्रु कर्म हैं उनका नाश करने वाला "अरिहंत" कहलाता है।१५ अरहन्त शब्द का अर्थ पूजनीय है और अरूहन्त का अर्थ है- जो जन्म-मरण से रहित है। जैन परंपरा में अरिहंत, सिद्ध,
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