Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 03
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ नहीं है । गण गच्छादि के उल्लेख सन् ६८७ और उसके पश्चात्कालीन लेखों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पाये जाते हैं । (E) पाँचवीं छठी शती के लेखों में नन्दिसंघ और नन्दिगच्छ तथा श्री मूलमूलगण और पुन्नागवृक्षमूलगण के उल्लेख यापनीय संघ के अन्तर्गत मिलते हैं। ग्यारहवीं शती से नन्दि संघ का उल्लेख द्रविड संघ के माथ तथा बारहवीं शती से मूलसंघ के साथ दिखाई पड़ता है। (१०) यापनीय संघ के अन्तर्गत बलहारि या बलगार गण के उल्लेख दशवीं शती तक पाये जाते हैं। ग्यारहवीं शती से बलात्कार गण मूलसंघ से संबद्ध प्रकट होता है। (११) मर्करा के जिस ताम्रपत्र लेख के अाधार पर कोएडकुन्दान्वय का अस्तित्व पाँचवीं शती में माना जाता है वह लेख परीक्षण करने पर बनावटी मिद्ध होता है, तथा देशोय गण को जो परम्परा उस लेख में दी गई है वहीं लेग्व नं० १५० ( मन् ६३१ ) के बाद की मालुम होता है। (१२) कोण्डकुन्दान्वय का स्वतंत्र प्रयोग ग्राठवीं नौवीं शती के लेख में देखा गया है तथा मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ मर्व प्रथम प्रयोग लेख नं० १८० ( लगभग १०४४ ई. ) में हुया पाया जाता है । ___ डॉ० चौधरी की प्रस्तावना में प्रकट होने वाले ये तथ्य हमारी अनेक सांस्कृतिक अोर ऐतिहामिक मान्यताओं को चुनोता देने वाले हैं। अतएव उनपर गंभीर विचार करने तथा उनसे फलित होने वालो बातों को अपने इति. हास में यथोचित रूप से समाविष्ट करने का आवश्यकता है। इस दृष्टि से इन शिलालेखों तथा डॉ० चौधरी को प्रस्तावना का यह प्रकाशन बड़ा महत्त्वपूर्ण है। मुजफ्फरपुर, १४-३-१६५७ हीरालाल जैन डायरेक्टर, प्राकृत जैन विद्यापीट, मुजफ्फरपुर ( विहार)

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 579