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तब से आगे प्रकाशित दोनों भागों का सुविस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन डाँ गुलाब चन्द्र चौधरी द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुझे भरोसा है कि डॉ. चौधरों के इस परिश्रम से जैन इतिहास का बड़ा उपकार होगा। इनकी प्रस्तावना से प्रकाश में आने वाली कुछ विशेष बातें निम्न प्रकार हैं:--
(१) मथुरा की खुदाई से प्रकाश में आई मूर्तियों में प्रमाणित हुआ कि आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व जैन प्रतिमायें नग्न ही बनाई जाती थीं। मतियों में वस्त्रों का प्रदर्शन लगभग पाँचवीं शती से पूर्व नहीं पाया जाता।
(२) प्राचीन काल की प्रतिमाओं में तीर्थकरों के बैल आदि विशेष चिह्न बनाने की प्रथा नहीं थी। केवल आदिनाथ के केश ( जटा ) तथा पाश्च और सुपार्श्व के सर्पफण मूर्तियों में दिखलाये जाते थे।
(३) तीर्थंकरों के साथ साथ यक्ष यक्षिणियों की पूजा का भी प्राचीन काल से ही प्रचार था और उनका भी मूर्तियां स्थापित का जाता थीं।
(४) मथुरा से जो जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा संबंधा लेख मिले हैं उनमें गणिकायें, गणिकापुत्रियाँ, नर्तकियाँ ओर लुहार, सुनार, गंधोगिर आदि जातियों के लोग भी पूजा प्रतिष्ठादि धार्मिक कार्यों में भाग लेते हुए पाये जाते हैं ।
(५ ) मथुरा के ले वा से सिद्ध होता है कि उत्तर भारत में भा मातृपर. म्परा के उल्लेख की प्रथा थी। बात्मापुत्र, गोनिमीपुत्र, मोगलिपुत्र, कौशिकीपुत्र आदि जैसे नाम पाये जाते हैं।
(६ ) मथुरा के लेखों में जो जैन मुनियों के गणो, कुलो और शाखायो के उल्लेख मिलते हैं उनसे कल्पसूत्र को स्थविरावली की प्रामाणिकता सिद्ध होता है।
(७) कदंब वंशा लेखों के अनुसार ४-५ वी शता के लगभग दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ महाश्रमण, श्वेतपट महाश्रमण तथा यापनाय और कूचक संघो का अस्तित्व पाया जाता है। ये सब सम्प्रदाय प्राय: मिल जुल कर रहते थे।
(८) मूलसंघ का सर्व प्रथम उल्लख गग वंश के माधव वर्मा द्वितीय और उमके पुत्र अविनीत ( सन् ४००-४२५ के लगभग ) के लेखों में पाया जाता है। किन्तु इन लेखों से किसो गण, गच्छ, अन्वय आदि का कोई उल्लेख