Book Title: Jain Shasan Samstha ki Shastriya Sanchalan Paddhati
Author(s): Shankarlal Munot
Publisher: Shankarlal Munot

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Page 17
________________ श्री जैन शासन संस्था ९] को और गौणरूप से शासन के पांच अंगों में के प्रथम अंग शाश्वत धर्म को धक्का लग रहा है । (आ) आधुनिक भौतिकवादी अनात्मवाद प्रधान विज्ञान पर भार देने वाले शिक्षण से भी शाश्वत धर्म रूप शासन के प्रथम अंग को भारी धक्का लग रहा है । (इ) चुनाव मताधिकार, बहुमत, एकमत, सर्वानुमत, लघुमत आदि से शासन के मूल तत्व नींवरूप आज्ञा को ही धक्का लगता है । २२. शासन का अनादिसिद्ध विधान : प्रत्येक गांव के सत्रों को अपना २ अलग विधान करने को आवश्यकता नहीं है । भिन्न २ विधान बनाने से ( १ ) सकल श्री संघ से दूसरे श्री संघों का सम्बंध विच्छेद हो जाता है । ( २ ) अंश से भी लोकशासन के अनुसार विधान बनाने से प्राचीन शासन से सम्बन्ध कट जाता है । (३) नया विधान बनाने का अर्थ ही यह होता है कि मूल-भूत विधान और उसके संचालक विद्यमान नहीं हैं, परम्परा ही लुप्त हो गई है । ( ४ ) आधुनिक बहुमत की पद्धति के अनुसार प्रमुख, उपप्रमुख, सेक्रेटरी आदि का विधान भी जैन शासन की मर्यादा से अलग पड़ जाता है । (५) अलग २ कामों के लिये कमेटियां, समितियां नियत करने से वे सब श्री संघ को संस्थाएँ न रह के सर्व सामान्य हो जाती हैं । ( ६ ) स्वतन्त्र विधान वाली संस्था शुरू होने से पूर्व की संस्था और उसके चले आते संचालकों ( वहीवटदारों की संचालन पद्धति रद्द हो जाती है । मूल संस्था से स्वतन्त्र बन जाती है । दूसरी तरफ राजतन्त्र में रजिस्टर कराने में वह उसकी पेटा ( अन्तर्गत) संस्था बन जाती है । इसलिए कार्यवाहकों को व्यवस्थापकों द्वारा उत्तरदायित्व श्री संघ की पद्धति से सौपा जा सकता है । जिससे श्री जैन शासन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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