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श्री जैन शासन संस्था
॥ श्री वीतरागाय नमः ।।
द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना से प्रकाशकीय निवेदन ...
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वतमानकाल में जगह २ पर बुद्धिवादी ( सुधारक ) लोगों की तकणा के बल पर विविध प्रकार को संस्थाएं मण्डल सोसायटी एसोसिएशन एवं यूनियन आदि के रूप में दिन दूनी रात चौगुनी को शक्ल में प्रफुल्लित होती जा रही है और प्रत्येक संस्था अपना स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करने हेतु नव-निर्माण के जोश में सांस्कृतिक परम्परा से कतई विलक्षण बातों को बंधारण के नाम पर अंधानुकरण के रूप से स्वीकृत कर मूल-भूत प्राचीनतम परम्परा से अपना सम्बन्ध सर्वथा तोड़ देने का दुस्साहस जाने अनजाने रूप में कर बैठती है।
ऐसी स्थिति में लालबत्ती के रूप में अनंतोपकारी निःस्वार्थ करुणा के भंडार तीर्थकर देव भगवान की सर्व हितकर शासन संस्था का मौलिक परिचय विचारक सुज्ञ महानुभावों के सामने प्रस्तुत करना जरूरी समझकर यह लघु प्रयास जो है उसे सुव्यवस्थित रूप में बनाये रखने के शुभ उद्देश्य से किया जारहा है। . असली बात इस पुस्तिका के द्वारा व्यक्त करने का भरसक प्रयत्न किया है वह यह है कि -- "अनन्तोपकारी विश्ववत्सल अरिहंत भगवन्त ने अधिकारानुरूप सर्व जगत के जीवों को लाभ देने वाली संस्था जिन शासन के रूप में परा पूर्व से अपने को प्राप्त हुई है, कालबल से उसके यथार्थ स्वरूप की जानकारी के अभाव को ज्ञानी महा-पुरुषों के तत्त्वावधान में जिज्ञासा द्वारा दूर करके नई-नई संस्था एवं नये २ विधान संघारण बनाकर पुराने सर्व हितकर शासन के बंधारण को रद्द कर देने की अक्षम्य गलती न करने पाये।
इस पुस्तिका का मूल ढाँचा जैन शासन को मार्मिकता को
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श्री जैन शासन संस्था सूक्ष्म दृष्टि से समझकर विश्व की तमाम विचार धाराओं के ऊपर सर्वातिशायी महत्वपूर्ण अमिट छाप पैदा करने की क्षमता रखने वाले, सूक्ष्म विचारक विद्वर्य पंडित प्रवर श्रीप्रभुदास भाई बेचरदास भाई पारेख की कमल से निमित हुआ।
बाद उसे सुव्यवस्थित कर हिन्दी रूपान्तर किया गया तथा पुस्तिका के विषय को समथित करने वाली सामग्री परिशिष्ट के रूप में जोड़ दी गई है, इस तरह इस लघु पुस्तिका का प्रकाशन
हुआ।
पहले यह पुस्तक वि० सं० २०१५ के चातुर्मास में उदयपुर श्री संघ को उदार सहायता को प्राप्त कर प्रकाशित हुई थी।
परन्तु जगह-जगह से अत्यधिक मांग आने पर प्रथमावृत्ति सम्पूर्ण हो जाने पर परिद्धित संस्करण के रूप में यह द्वितीयावृत्ति राजस्थान जैन संस्कृति रक्षक सभा ब्यावर के मारफत प्रकाशित की जारही है।
विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तिका को आद्योपान्त पढ़कर गुरुगम से कुछ बातें समझने की चेष्टा करके, नये २ बंधारण विधान बनाने की दुष्प्रवृत्ति के कुपरिणामों से बचते हुए, जिन ' शासन की मौलिक गहराई को पहचान कर, कालबल से होने वाली बुद्धि भेद की गहरी खाई में गिरती हुई सांस्कृतिक विचार धारा . की सुरक्षा में सुज्ञ महानुभाव जुटे रहेंगे।
प्रस्तुत पुस्तिका में छद्मस्थसुलभ जिन शासन की मर्यादा एवं पंचांगी आगमों की आज्ञा से विरुद्ध कोई बात हो या छपाई आदि का कोई दोष हो उसका सकल संघ समक्ष क्षमा मांगते हुए प्रस्तुत पुस्तिका का सदुपयोग कर शासन को यथार्थ सेवा के लाभ को प्राप्त कर परम पद को प्राप्त करें। यह मंगल कामना ! ! वीर नि० सं० २४९१ । वि० सं० २०२२
प्रकाशक : विजया दशमी
शंकरलाल मुणोत
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श्री जन शासन संस्था ॥ आणाए धम्मो-जिनाज्ञा परमो धर्मः ॥
ततीय संस्कण की भमिका "श्री जैन शासन संस्था की शास्त्रीय संचालन पद्धति" का प्रथम संस्करण विक्रम सं. २०१५ (वीर सं. २४८४) में उदयपुर चातुर्मास में उदयपुर श्री संघ की उदार सहायता से प्रकाशित हुआ था किन्तु मेवाड़-राजस्थान मालवा-मध्य प्रदेश आदि कई संघ एवं स्थान-२ की मांग होने से द्वितीयावृति विक्रम सं २०२२ (वीर सं. २४९१) में श्री राजस्थान जैन संस्कृति रक्षक सभा, ब्यावर के मार्फत प्रकाशित हुई थी जो भी अल्प समय में समाप्त हो गई। इसके पश्चात लम्बे समय से भारतवर्ष के श्री संघ, नई पीढ़ी के वहीवटदार एवं अन्य जिज्ञासु श्रावकों को हिन्दी भाषा में शास्त्रीय मार्ग दर्शन प्रदान करने, जिनाज्ञा-शास्त्राज्ञा, पंचांगी जिनागम तथा प्राचीन अविच्छिन्न परम्परा एवं मान्यता अनुसार श्री संघ की प्रबंध व्यवस्था का संचालन करने को प्रेरणा देने हेतु एवं नये कार्यकर्ताओं को प्रचीन परम्परागत पद्धति की जानकारी देने हेतु मेरी ( पंन्यास श्री निरुपम सागर ) उत्कृट भावना थी कि इस पुस्तक को तृतीयावृत्ति शीघ्र प्रकाशित कर स्थान २पर बिना मांगे ज्ञान भंडार एवं व्यवस्थापकों-न्यासियों को भेजी जावे जिससे श्री संघ की सम्पत्ति, सात क्षेत्र, देवद्रव्य, धर्म द्रव्य आदि के संरक्षण एवं अभिवृद्धि की ओर श्री संघ, वहीवटदार एवं कार्यकर्ता अग्रसर हों। वर्तमान में पुस्तक दुर्लभ होने के साथ ही अत्यावश्यक भी थी अतः तृतीयावृत्ति प्रकाशित करवाने का विचार किया गया। एक वर्ष तक विभिन्न व्यक्ति, संस्था, ज्ञान भण्डार से पूछताछ एवं खोजबीन करने पर इसकी एक प्रति श्री महोदय सागर जैन शास्त्र संग्रह, इन्दौर में उपलब्ध हुई जिसकी फोटू काफी कराकर यह संस्करण जो आपके हाथ में है, प्रकाशित कराया गया ।
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श्री जैन शासन संस्था
सूक्ष्म विचारक, विद्वदवयं, पंडित प्रवर अगाध धर्म निष्ठ श्री प्रभुदास बेचरदास पारेख, राजकोट के अगाध शास्त्र चितन के अधार पर स्व. परम पूज्य उपाध्याय श्री धर्म सागरजी म. सा के मार्ग दर्शन अनुसार परम पूज्यपंन्यास प्रवर स्व. गुरुदेव श्री अभय सागर जी म. सा. ने शास्त्राधार से इस पुस्तक की प्रथमावृत्ति विक्रम सं. २०१५ में प्रकाति करवाई धी जिसकी द्वितीयावृत्ति विक्रम सं. २०२२ में छयो । इस तृतीयावृत्ति में सात क्षेत्रादि को समझत (परिशिष्ट १), विक्रम सं. १९९० में राजनगर (अमदावाद) में अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर मुनि सम्मेलन के सर्वानुमत निर्णय अनुसार पट्टक रूप नियम (परिशिष्ट ४), विक्रम सं. २००७ में पालीताणा स्थित समस्त श्रमण संघ ने बाबु पन्नालाल की धर्मशाला में एकत्र होकर सर्वसम्मत निर्णय किया परिशिष्ट २), चुनाव पद्धति से हानि ( परिशिष्ट ३ ), विक्रम सं. २०१४ में राजनगर (अमदाबाद) में चातुर्मास बिराजमान श्री श्रमण संघ ने उहेला के उपाश्रय में एकत्र होकर सात क्षेत्रादि धार्मिक व्यवस्था का दिग्दर्शन निश्चित किया (परिशिट ४), तथा विधान का प्रारूप (परिशिष्ट ५ ), भी दिया गया है। विक्रम स. २०२० में राजनगर शांति नगर जैन उपाश्रय में पूर्व सूचना देकर श्री राजनगर के सभी उपाश्रय में विराजित पूज्य श्री श्रमण संघ ने गंभीर विचार विनिमय कर सर्वानुमति से जो अभिप्राय निश्चित किया उसके प्रकाश में पूज्य आचार्य श्री चन्द्र सागर सूरीश्वर जी म. सा. के शिष्यरत्न पूज्य गणि श्री धर्म सागरजी म. सा ने विक्रम सं. २०२२ वीर सं. २४९२ में श्री जैन श्वेताम्बर संघ की पेढ़ी, इन्दौर से "धर्म द्रव्य व्यवस्था" नामक गुजराती पुस्तक प्रकाशित करवाई, इन सबको प्रमुख बातों का सारांश एवं साथ ही मझे कुछ उपयोगी बातों का प्रकाशन वांछनीय लगा वह पूज्य आचार्य श्री सूर्योदय सागर सूरिजी म. सा. के मार्ग दर्शन में संशोधित करवाकर
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श्री जन शासन संस्था जोड़ा गया है। पू. पं. श्री अभयसागर जी म. सा. के महोत्सव आयोजन संबंधी तात्विक विचार, शुद्धि पत्रक, जम्बद्वीप की निर्माणधीन योजना का संक्षिप्त दिग्दर्शन, पुस्तक प्रकाशन में द्रव्य सहायकों की सूची आदि भी जोड़ी गई है।
इस पुस्तक की अधिकांश बातें श्री श्वेताम्बर मूति पूजक संघ के प्रायः सभी समुदाय में मान्य है, क्योंकि मुनि (साधु) सम्मेलन द्वारा अनुमोदित हैं। अतः समस्त चतुविधि संघ को यह उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसी आशा है । यह तृतीयावृत्ति परमोपकारी स्व. दादागुरु पू. उपा. श्री धर्मसागरजी म.सा. एवं श्री अभयसागरजी म. सा. के चरण कमलों में सादर सविनय समर्पित करता हूँ।
इस पुस्तक प्रकाशन में प्राप्त द्रव्य सहयोग में से बची हुई राशि इसी प्रकार की जीवनोपयोगी हितकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने में ली जावेगी। द्रव्य सहायकों के उदार सहयोग की हार्दिक अनुमोदना । पुस्तक तैयार कराने में प्रारम्भ से अन्त तक सुश्रावक श्री नथमलजी पीतलिया रतलाम ने अथक परिश्रम किया तथा सुराना प्रेस के स्वामी श्री ज्ञानचन्दजी सुराना ने व्यक्तिगत रुचि लेकर निर्देशानुसार मुद्रण किया उसकी अनुमोदना किये बिना नहीं रह सकते।
यदि इस छोटे से प्रयास से श्री संघ ने कुछ लाभ उठाया, अपनी कार्य पद्धित में निर्देशानुसार सुधार किया तथा दोष से बचे तो मैं अपना श्रम सार्थक समझंगा। इसके प्रकाशन में जिन महानुभावों ने ज्ञात एवं अज्ञात रूप में तन-मन धन से सहयोग किया उसकी पुनः अनुमोदना । अगले संस्करण को और उपयोगी विस्तृत एवं उत्कृष्ट बनाने हेतु सुझाव, संशोधन सादर आमंत्रित है । शासनशास्त्र मर्यादा एवं पंचांगी जिनागम आज्ञा विरुद्ध अथवा मुद्रण अशुद्धि से कोई दोष रह गया हो तो त्रिविमिच्छामि दुक्कडं । वीर सं २५१७ मार्ग शीर्ष विदी १० (दूसरी) | पं० निरूपमसागर
श्री महावीर स्वामी दीक्षा कल्याणक श्री जैन उपाश्रय, विक्रम सं २०४७ सोमवार दि. १२-११-९० | डगजि. झालावाड़ राज.
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५००)
vi]
श्री जैन शासन संस्था पुस्तक प्रकाशन में द्रव्य सहायकों को शुभ नामावली १०००) श्री जैन श्वेतांबर संघ की पेढ़ी इन्दौर ह. मानमलजी
तांतेड़। ५००) " वागमलजी चम्पालालजी इन्दौर "
मांगीलालजी मन्नालालजी वोरा चांदीवाला बड़नगर ५००) लालचन्दजी शिखरचन्दजी नागोरी, इन्दौर । ५००) वेलजीभाई लीलाधर शाह २५१) राजमलजी बसन्तीलालजी जैन, प्रतापगढ़। २५१) सालगिया कानजी अमृतलाल प्रतापगढ़
ह. श्री कन्हैयालालजी। २५१) सालगिया मोतीलालजी माणकलालजी " २५१) हस्तीमलजी लोढ़ा, क्लर्क कॉलोनी, इन्दौर । २५१) बाबुलालजी जैन " " २५१) राजेन्द्रकुमारजी रांका " " २५१) पारसमलजी बरमेचा " " २५१) " ऊंकारलालजी गुलाबचन्दजी चौरडिया " २५१) "
रतनलालजी गेलड़ा, इन्दौर की स्मृति में
ह. धर्मपत्नी धापूबेन एवं पुत्र शिखरचन्द २५१) "
प्रकाशचन्द्रजी मेहता इन्दौर ह. धर्मपत्नी आशा बेन पुत्र सुशीलकुमार नन्दानगर मांगीलालजी मेहता " ह. धर्मपत्नी मानकुंवर पुत्र अनिल केउपधान निमित्त सुजानमलजी विनोदकुमारजी सुराणा थावरिया
बाजार, रतलाम २५१) "
इन्दरमलजी चौधरी, पीपलोन २५१) कंचनबेन सूरजमलजी ट्रस्ट, मंदसौर ह. श्री सूरज
मलजी जावद वाला
२५१)
।
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श्री जैन शासन संस्था
vil ] २५१) __ कस्तूरचन्दजी हीरालालजी पोरवाड मन्दसौर २५१) इन्दरमलजी रतनलालजी खमेसरा " २५१) " नवलजी चम्पालाल ह.शान्तिलालजी पोरवाड़ " २५१) सागरमलजी जैन " २५१) धनराजजी नानालालजी पोरवाड़ २५१) श्री फर्म कांन्तिलाल अरविंदकुमार मन्दसौर ह.
श्री शान्तिलालजी पोरवाड़ २५१) , कुदनजी फुलचंदजी , .. चन्द्रकुमार संघवी २५१) " मांगीलालजो मोतीलालजी
मांगीलालजी मच्छी रक्षक २५१) , कारूजी किशनलालजी जवराशा ,
श्रेयासकुमारजी पोरवाड़ २५०) , दावड़ा सोभागमलजी होरालालजी प्रतापगड़
मनसुखभाई परमानन्द वोरा. इन्दौर २५०) , बचुभाई आत्माराम रामपुरा वाला, २००) , सोमचन्दजी इन्दरमलजी इन्दौर ह. श्री वजेराजजी १०१) , चीपड़ चांदमलजी किशनलालजी, प्रतापगढ़
श्री जंबद्वीप निर्माण योजना के विविध आकर्षण प्रेरक-पूज्य आगमोद्धारक श्री के शिष्यरत्न पू. आ. श्री सूर्योदय
सागर सूरिजी म. सा. तथा शासन सुभट पू. उपा. श्री धर्म सागरजी म. सा. के शिष्य पू. पं.श्री अभय सागरजी म. सा. जेंबद्वीप जिनालय-१११ फीट ऊंचे अतिरमणीय इस जिन प्रासाद में ७ हाथ (१० फीट) ऊजी कंचनवौँ श्री महावीर प्रभु और भोयरा में श्यामवर्णी श्री मनोरथ कल्पद्रुम पाव
नाथ प्रभु प्रतिमा बीराजमान है ।। २. जंबद्वीप मन्दिर अपनी पृथ्वी केसी ? इसका शास्त्रीय उत्तर
इसी हेतु इस जंबू द्वीप को संरचना। इसमें सूर्य/चन्द्र की गति
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vill ]
श्री जैन शासन संस्था भी बताई है, इसमें २२ स्तूप हैं जिनमें हिन्द अनु वाद सहित शास्त्र पाठ हैं। नवकार मन्दिर- इस नवकार मन्दिर में परम कृपालु गुरुदेव पू. पं. श्री अभर सागरज म. क साधना में स्फूरित विविध नवकार पटों के दर्शन होंगे। पूज्य श्री की साधना के उपकरण दिखेंगे और सुन्दर भोयरा जिसमें जाप हेतु स्वर्णाक्षर नव
कार स्थापित होगा। ४. आराधना भवन-६८४ ६८ फीट के हॉल वाला यह अष्ट
कोणी उतुंग रमणीय भवन है, इसमें चातुर्मास-दीक्षा-उपधान आदि धर्म कार्य जाहोजलाल पूर्वक संपन्न होंगे। चौदह राजलोक-यह एक अभिनव इमारत है। जो बराबर मनुष्य के आकार के समान होग । ७२ फीट ऊंची इस इमारत में आश्चर्य जनक किन्तु शास्त्रीय विविध दृश्य बताये जावेगे। तलाटी रोड का द्वार-यह आकर्षक प्रवेश द्वार सीधे तलाट के मुख्य मार्ग से दिखेगा। इसके शीर्ष पर लहराती ध्वजा आपको वधा रही है। पधारिये........और निहारिये जंबू द्वीप के विशाल परिसर को ।। विज्ञान भवन-बुद्धि जीवियों के लिये विशेष, यह विज्ञान भवन है। इसमें भूगोल सम्वन्धी ज्वलंत समस्याओं को हल करने को भांति भांति के यंत्र, तर्क संगत जानकारी के भरपूर भण्डार उपलब्ध रहेंगे । मुख्य द्वार-यह जंबू द्वीप के विशाल परिसर में प्रवेश का विराट द्वार होगा जो अद्भुत कलाकृति युक्त होगा। ज्ञान मन्दिर-देश विदेश के बहुमूल्य दुर्लभ हजारों की संख्या में ग्रंथ पुस्तक से भरपूर है ज्ञान भण्डार । इसके निरीक्षण से पूज्य
गुरुदेव श्री को संशोधन वृत्ति का परिचय मिलेगा। संपर्क :-श्री वर्धमान जैन पेढ़ी ( जम्बद्वीप ) तलाटी रोड,
पालीताणा (गुजरात)
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• जिनाजा परमो धर्मः .
जैन शासन संस्था
शास्त्रीय संचालन पद्धति
जयति जगदेकमंगल मपहतनिश्शेषदुरित धनतिमिरम् । रविबिम्ब मिव यथास्थित-वस्तुविकाशं जिनेशवचः ॥
भावार्थ : जगत में श्रेष्ठ मंगल स्वरूप, सूर्य की तरह संपूर्ण पाप
रूप गाढ़ अन्धकार को दूर करने वाला और यथार्थ रूप से वस्तु के स्वरूप को बतलाने वाला श्री तीर्थकर देव का वचन जयवंत है ।
* श्री जैन शासन *
श्री तीर्थकरदेव स्थापित तीर्थ संस्था का संक्षिप्त दिग्दर्शन
१. उद्देश्य-श्री तीर्थकरोपदिष्ट शाश्वतधर्म ज्ञानाचार, दर्शनाचार,
चारित्राचार, तपाचार, और वीर्याचार, रूप पंचाचा
रात्मक मोक्षमार्ग के पालन की सुलभता। २. नाम-जैन शासन, तीर्थ-धर्मतीर्थ, प्रवचन-धर्मशासन आदि
नाम से शास्त्रों में प्रसिद्ध है।
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श्री जैन शासन संस्था
३. स्थापक-इस अवसर्पणो युग की अपेक्षा से सर्वप्रथम आदि
तीर्थकर (ईश्वर) श्री ऋषभदेव प्रभु इस शासन के स्थापक हैं। वर्तमान शासन की अपेक्षा से चरमतीर्थंकर श्री महावीर परमात्मा (श्री वर्द्धमान स्वामी) इस शासन के स्थापक हैं। (तीर्थ-शासन की स्थापना
करने वाले होने से तीर्थकर कहलाते हैं।) ४. स्थापना स्थल-आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु ने अयोध्या
नगरी में भी पुरिमताल नगर के शकटमुख
उद्यान में जैन शासन की स्थापना की। तीर्थकर श्री महावीर प्रभु ने अपापापुरी (पावापुरी) के महासेन नाम के उद्यान में जैन शासन की स्थापना की। मध्यकाल में २२ तीर्थंकरों के शासन की स्थापना का उल्लेख भी आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में मिलता है। ५. स्थापना दिवस--श्री ऋषभदेव प्रभु ने इस अवसपिणी के तीसरे
आरे के लगभग अन्तिम भाग में (तीसरे आरे के एक हजार वर्ष न्यून एक लाख वर्ष पूर्व और तीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी रहे तब) फाल्गुन कृष्णा ११ के दिन जैन शासन की
स्थापना की। श्री महावीर प्रभु ने चौथे आरे के लगभग अन्तिम भाग में वैशाख शुक्ला १० के दिन केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद वैशाख शुक्ला ११ के दिन आज से २५४६ वर्ष पूर्व जैन शासन (संस्था) की स्थापना की जो कि आचार्यों को परम्परागत रीति से आज भी सुव्यवस्थित रूप से चला आता है। ६. जैन शासन संस्था कहां तक टिकेगी
श्री भगवती सूत्र के कथनानुसार श्री महावीर प्रभु का
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श्री जैन शासन संस्था
स्थापित किया हुआ शासन पंचम आरे के अन्त तक २१००० वर्ष तक टिकेगा। श्री महानिशीथ सूत्र आदि के कथनानुसार पंचम आरे के अन्तिम दिन आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के प्रथम प्रहर में अन्तिम युग प्रधान आचार्य श्री दुप्पसहसूरिजी (साधु) फल्गुश्री (साध्वी) नागिल श्रावक, सत्यश्री (श्राविका) इन चार व्यक्तिरूप चतुर्विध संघ का (उनके स्वर्गवास पर) विच्छेद होगा। ७. शासन के संचालक
परम्परागत प्रभु आज्ञाधारी:
श्रमण प्रधान चतुर्विध श्री संघ १. साधु २. साध्वी ३. श्रावक ४. श्राविका ८. मुख्य संचालक
श्री ऋषभदेव प्रभु के शासन में:१. श्री पुण्डरीक स्वामी आद्य गणधर (साधु) २. श्री ब्राह्मी (साध्वी) ३. श्री भरत महाराज (श्रावक)
४. श्री सुन्दरी (श्राविका) ९. श्री महावीर प्रभु के शासन में:
१. श्री इन्द्रभूति (गौतम स्वामी) आद्य गणधर (साधु) २. श्री चन्दनबालाजी (साध्वी) ३. श्री शंख (श्राक्क) ४. श्री रेवती (श्राविका)
(मध्यकाल में हुवे तीर्थंकरों के शासन के चतुर्विध संघ के मुख्य संचालकों के नाम आवश्यक नियुक्ति आदि में मिलते हैं।
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श्री जैन शासन संस्था
४ ]
१०. शासन रक्षक देव और देवी:
ऋषभदेव प्रभु के शासनाधिष्ठायक गोमुखयक्ष और अधिष्ठायिका चक्रेश्वरी देवी, महावीर प्रभु के शासनाधिष्ठायक मातंगयक्ष और अधिष्ठायिका सिद्धायिका देवी ।
२२ तीर्थंकरों के शासन के अधिष्ठायक देव देवियों के नाम भी आवश्यक निर्युक्ति आदि शास्त्रों में मिलते हैं ।
शासन के अधिष्ठायक देव देवियों को शास्त्रों में प्रवचन देव प्रवचन देवी के नाम से कहा है । इस भांति श्रुत आगमों को अधिष्ठायिका देवी को श्रुत देवी कहा है ।
प्रवचन शब्द का अर्थ श्रुत आगम भी होता है । चतुविध संघ भी होता है। शासन का अर्थ संस्था भी है और धर्म भी होता है । कहां क्या अर्थ करना है ? यह गुरुगम से अगले पिछले सम्बन्धादि का विचार कर समझा जाता है ।
११. श्री जैन शासन की अवांतर ( अन्तर्गत ) सस्थाएँ:श्री जैन शासन की अवांतर संस्थाएँ विविध गच्छ हैं ।
१२. श्री संघ की अवांतर शाखाएँ:
प्रत्येक गांव के स्थानिक श्री संघ, सकल श्री संघ की अवांतर शाखाएँ हैं ।
१३. शासन की संपत्तिः
जब से जैन शासन अस्तित्व में आया तब से या उससे पूर्व या भविष्य में भी इसके लिए जो कोई स्थावर जंगम सम्पत्ति जैन शासन के उद्देश्य के मुताबिक स्थापित होती हैं या हुई हों अर्थात् पांच आचारों के मुताबिक असंख्य अनुष्ठान, प्रत्येक अनुष्ठान के
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श्री जैन शासन संस्था
मुताबिक विधियें और उन उन विधियों में उपयोगी उपकरण तथा तीर्थ कल्याणक भूमि आदि । इनके अतिरिक्त देवद्रव्य आदि पांच द्रव्य सात क्षेत्र मिलाकर होने वाले बारह धर्म द्रव्य और उनसे सम्बन्धित भिन्न २ प्रकार के छोटे बड़े दूसरे अनेक खाते आदि सब जैन शासन के अनन्य स्वामित्व को सम्पत्ति है। १४. शासन को सम्पत्ति के संचालक के अधिकारः---
जैन शासन की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर जैन शासन को आज्ञानुसार संचालन करने का सम्पूर्ण अधिकार जिनाज्ञानुसारी श्रमण प्रधान चतुर्विध श्री संघ को अपने अपने अधिकार मुजब है। १५. श्री संघ के अधिकारों का स्वरूपः-. [अ] श्री गणधर भगवंतों से परम्परागत मुख्य आचार्य जो श्री
तीर्थकर भगवंत के प्रतिनिधि हैं । [आ] समय समय पर हुए अन्य आचार्य, उपाध्याय, गणि, पन्यास
त्यागी मुनि जो मुख्य आचार्य के प्रतिनिधि हैं। [इ] स्थानीय संघ के आगेवान मार्गानुसारी, देशविरतिधर तथा
द्रव्य सप्तिका गाथा ५, ६, ७ में धर्म द्रव्यों की रक्षा, व्यवस्था, संचालन की योग्यता जो बतलाई गई है, उसको यथाशक्ति आचरण करने वाले गृहस्थ, जो कि मुख्य आचार्य के स्थानिक प्रतिनिधि हैं । स्थानीय संघ जो मुख्य आगेवान के मार्गदर्शन के अनुसार चलते हैं। यह जैन शासन की
शास्त्रानुसारी संचालन पद्धति है। [ई] देव, गुरु, शासन को परम्परागत आज्ञा के विरुद्ध आचरण
करने का श्री संघ के किसी भी व्यक्ति को अधिकार नहीं है । [3] यदि कोई अज्ञानता के कारण आज्ञा विरुद्ध कुछ कहे और
श्री संघ के प्रधान आचार्य महाराज के समझाने या आज्ञा
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श्री जैन शासन संस्था
देने पर भी नहीं माने और परम्परा बिगड़ने का भय खड़ा हो तो श्री संघ शासन की मर्यादाओं को कायम रखने के लिए उसे सड़े पान के माफिक संघ से बाहर कर अनादिकाल से चली आती सर्व प्राणी हितकर शासन संघ की प्रणाली को
अबाधित रूप से कायम रखना चाहिए । १६. शासन संचालन किस आधार पर :
श्री तीर्थकर स्थापित जैन शासन (संस्था) का संचालन तथा श्री संघ के अनुशासन के बहुत नियम श्री आचार दिनकर, श्री आचार प्रदीप, श्री आचारोपदेश, श्री गुरुतत्वविनिश्चय, आदि में एवं छेदसूत्र, श्री व्यवहार, श्री वृहत्कल्प सूत्र, श्री महानिशीथ सूत्र श्री निशीथ सूत्र और द्रव्य सप्ततिका आदि में विविध भांति के भिन्न २ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सुसंगत वणित मिलते हैं। १७. संचालकों को कक्षाएँ :
श्री जैन शासन के संचालन में सर्व प्रथम आज्ञा प्रधानता श्री तीर्थकर भगवतों की है फिर उनके बाद गणधर भगवंतों, प्रधान आचार्य महाराज, गौण अधिकार रखने वाले आचार्य महाराज, फिर गणी, गणावच्छेदक, वृषभ गीतार्थ मुनि, पन्यास आदि क्रमशः सब नोट-द्रव्य सप्ततिका गामा :
अहिंगारी य गिहत्थो, सुहसयणो वित्तमं जुओ कुलजो । अख्खुद्दो धिइबलिओ, मइमं तह धम्मरागाय ॥ ५ ॥
गुरुपूजा करणरई, सुस्सूसाई गुणसंगओ चेव । णायाहिगयविहा णस्स, घणि प्रमाणापहाणो य ॥ ६॥
__ मग्गाणुसारिपायं, सम्मविट्टी तहेव अणु विरई । ए ए हिगारिणो इह, विसेसओ धम्मसथ्यमि ॥७॥
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श्री जैन शासन संस्था
शासन के अधिकार और श्री संघ की कार्यवाही से सम्बन्ध रखने वाले अधिकारों का शास्त्रों में वर्णन मिलता है।
भिन्न २ आचार के कल्पों में धर्माराधन के अतिरिक्त ऐसे नियम भी होते हैं। इन सबका समावेश दर्शनाचार में होता है। १८. श्री संघ की कार्यपद्धति के आधार तत्व :
श्री संघ की कार्य पद्धति (कार्य प्रणाली) पूर्वाचार्यों द्वारा किये निर्णयों आदि के आधार पर होती है। आगम, श्रुत, धारणा जीत और आचार यह पांच व्यवहार, बंधारणीय नियम और श्रीसंघ को संचालन पद्धति से सम्बन्धित मुख्य वस्तु है।
धर्माराधना भिन्न वस्तु है, शासन संघ के नियम भिन्न हैं। शास्त्राज्ञा एवं तत्वज्ञान भिन्न वस्तु हैं । सम्पत्ति की प्राप्ति तथा उपयोग तथा रक्षण सम्बंधी नियम भिन्न हैं तो भी पांचो व्यवहारों से परस्पर सम्बन्धित हैं।
पांचों आचार और उनके अन्तर्गत आचारों को विस्तृत जानकारी (ज्ञान) के साथ २ उनसे सम्बन्धित अनाचारों, अपराधों एवं अतिचारों के प्रायश्चित आदि शास्त्रों में विस्तार से बतलाये
१९. शासन याने :
अ. शाश्वत धर्म, रत्नत्रयो ज्ञान, दर्शन, चारित्र] आ. शासन, वीतराग, आज्ञा । इ. संघ, श्रमण प्रधान चविध श्री संघ । ई. शास्त्र, द्वादशांगी अर्थात् पंचागी सहित आगम । उ. संपत्ति, पांच द्रध्य उपलक्षण से साधक द्रव्य, क्षेत्र, काल
एवं भाव । यह पांच शासन शब्द से जानना।
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श्री जैन शासन संस्था
इस भांति शासन के अंग के रूप में बतलाये हुए पांचों की साक्षेप आराधना वास्तव में जैन धर्म की आराधना है। किसी एक का भी अहित होने पर परिणाम में सबको हानि होती है । परम्परा से धर्म को धक्का लगता है। २०. साधक-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का स्वरूपःद्रव्य-आराधक आत्माएं, एवं आराधनोपयोगी उपकरण आदि । क्षेत्र-आराधना में उपयोगी श्री शत्रुजयादि तीर्थ, देवालय (चैत्य)
पौषधशालाएं आदि । काल-आराधना के अनुकूल, दूज, पंचमी, अष्टमी, चौदस, पर्युषण
महापर्व, कल्याणक तिथियां आदि । भाव-आराधना की विशिष्टता को बढ़ाने वाले आराधक भाव के
पोषक क्षमादि धर्म, पंचाचार, रत्नत्रयो, मार्गानुसारी अपुनबँधकादि सामग्री।
यह चार धर्म की आराधना में प्रबल निमित्त भूत हैं, और इन निमित्तों से आराधक आत्माएं धर्म की आराधना अच्छी तरह कर सकती हैं।
इस तरह शासन संस्था के बहुत विषय हैं । जो कि परंपरा से, गुरुमुख से, शास्त्रों से तथा सूक्ष्म अध्ययन से समझने योग्य हैं। गवेषणात्मक रीति से इस सम्बन्ध में गहन अध्ययन करने से बहुत जानकारी मिल सकती है। २१. शासन के प्रतिकूल तत्व :(अ) इन सबको उलटने के लिये आज चुनाव और बहुमतवाद है,
क्योंकि वर्तमान पब्लिक या धार्मिक ट्रस्ट एक्टों से मुख्य रूप से धर्माराधना में प्रबल निमित्त, साधक, द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव,
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श्री जैन शासन संस्था
९]
को और गौणरूप से शासन के पांच अंगों में के प्रथम अंग शाश्वत धर्म को धक्का लग रहा है ।
(आ) आधुनिक भौतिकवादी अनात्मवाद प्रधान विज्ञान पर भार देने वाले शिक्षण से भी शाश्वत धर्म रूप शासन के प्रथम अंग को भारी धक्का लग रहा है ।
(इ) चुनाव मताधिकार, बहुमत, एकमत, सर्वानुमत, लघुमत आदि से शासन के मूल तत्व नींवरूप आज्ञा को ही धक्का लगता है ।
२२. शासन का अनादिसिद्ध विधान :
प्रत्येक गांव के सत्रों को अपना २ अलग विधान करने को आवश्यकता नहीं है । भिन्न २ विधान बनाने से ( १ ) सकल श्री संघ से दूसरे श्री संघों का सम्बंध विच्छेद हो जाता है । ( २ ) अंश से भी लोकशासन के अनुसार विधान बनाने से प्राचीन शासन से सम्बन्ध कट जाता है । (३) नया विधान बनाने का अर्थ ही यह होता है कि मूल-भूत विधान और उसके संचालक विद्यमान नहीं हैं, परम्परा ही लुप्त हो गई है । ( ४ ) आधुनिक बहुमत की पद्धति के अनुसार प्रमुख, उपप्रमुख, सेक्रेटरी आदि का विधान भी जैन शासन की मर्यादा से अलग पड़ जाता है । (५) अलग २ कामों के लिये कमेटियां, समितियां नियत करने से वे सब श्री संघ को संस्थाएँ न रह के सर्व सामान्य हो जाती हैं । ( ६ ) स्वतन्त्र विधान वाली संस्था शुरू होने से पूर्व की संस्था और उसके चले आते संचालकों ( वहीवटदारों की संचालन पद्धति रद्द हो जाती है । मूल संस्था से स्वतन्त्र बन जाती है । दूसरी तरफ राजतन्त्र में रजिस्टर कराने में वह उसकी पेटा ( अन्तर्गत) संस्था बन जाती है ।
इसलिए कार्यवाहकों को व्यवस्थापकों द्वारा उत्तरदायित्व श्री संघ की पद्धति से सौपा जा सकता है । जिससे श्री जैन शासन
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श्री जैन शासन संस्था
और श्री संघ की संस्था कायम रहती है। वर्तमान काल में हर एक विषय में कमेटियां करने का अंधानुकरण शासन, श्री संघ तथा धर्म को हानिकर्ता होता है।
आधुनिक न्यायतंत्र से भी "लिखा उतना ही प्रमाण" का अर्थ सत्यरूप स्वीकार कर शासन, श्री संघ के वैधानिक सनातन तत्व परंपरा रूप होने पर भी, उसके स्पष्ट अक्षर न होने के कारण सर्वज्ञ प्रणीत शासन के स्थायी विधान को अपने नये कायम किये हुए विधान के अक्षरों को आगे कर अधूरी और अनियत नियम वाली चोज पर न्याय की मोहर लगाकर मुग्ध जनता को असली वस्तु से बहुत दूर धकेल देने का काम हो जाता है।
इसमें अपनी अनभिज्ञता या कम समझ से गुमराह होकर नये विधान खड़े कर अनादि सिद्ध शासन श्री संघ को मर्यादा (विधान) को छिन्न भिन्न करने का और आधुनिक युग के भौतिकवाद अर्थात अनात्मवाद की विचारधारा एवं आचार में फंस जाने का काम अपने हाथों से हो जाता है, यह खूब ही विचारणीय है, अनर्थकारी है। स्थानिक श्री जैन शासन और श्री संघ
(सामान्य रूपरेखा) द्रव्य संपत्तिः-स्थावर जंगम धनादि और अनुयायियों की संख्या आदि भाव संपत्तिः-श्रद्धा, आचरण, ज्ञान आदि
[इन सबका सम्बन्ध सकल श्री संघ शासन के साथ होते हुए भी स्थानिक श्री जैन शासन से भी है।)
किसी भी गांव, शहर या स्थल में एक या उससे अधिक जैन धर्म के अनुयायी व्यक्ति हों अथवा कोई भी जैन शासन की
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श्री जैन शासन संस्था
११]
मिल्कियत किसी के भी अधिकार में हो तो वहां जैन शासन है और
कोई भी उसकी करता हो तो वह
वह सब जैन शासन को वस्तु ( सम्पत्ति ) है और रक्षा प्रबन्ध शास्त्राज्ञानुसार धार्मिक उपयोग में श्री जैन संघ की तरफ से समझना चाहिये ।
२. जिन आज्ञा के आधीन रहने वाला एक भी श्री संघ का व्यक्ति हो तो उसको वहां का श्री संघ गिना जा सकता है और वह वहां का जैन शासन से सम्बन्धित संचालन श्री संघ की तरफ से कर सकता है । इतर मार्गानुसारी व्यक्ति भी उसका संचालन अनिवार्य संयोग में कर सकता है ।
३. मार्गानुसारी यानि भारतीय आर्य अहिंसक चार पुरुषार्थं की संस्कृति के प्रति वफादार व्यक्ति, जहां जैन संघ न हो या अल्पसंख्यक या अल्पशक्ति सम्पन्न हो तो पास का श्री संघ उसका सहायक हो सकता है अथवा वह संघ सब संचालन कर सकता है, क्योंकि संचालन रक्षा करने का उनका कर्त्तव्य है ।
४. स्थानिक श्री संघ:- स्थानिक श्री जैन समाज के किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव का रक्षण, संवर्द्धन संचालन आदि स्थानीय श्री संघ के आधीन है ।
५. जैन तीर्थ, मंदिर, उपाश्रय, ज्ञानभंडार, पौषधशाला, धर्मशाला, परम्परागत धर्मश्रद्धा, धार्मिक आचार और उसकी मर्यादा में आये हुए साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि का रक्षण सम्मान, प्रतिष्ठा रक्षा, शासन भक्ति, प्रभावना आदि का समावेश होता है एवं सकल शासन और सकल संघ की भक्ति सच्चाई को रक्षा | उत्सव, साधर्मिक वात्सल्य, नवकारसी जीव दया, अनुकम्पा दूसरों के साथ के धार्मिक हित सम्बन्धों की रक्षा और स्थानीय जैन
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१२]
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शासन अथवा सकल जैन शासन या संघ सम्बन्धों की रक्षा आदि का समावेश होता है।
६. स्थानिक संघ के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य, जैन धर्म की आराधना के साथ जैन शासन और संघ के हितों को रक्षा, सेवा और गौरव की रक्षा सर्वस्व समर्पण करके भी करने का है। परंतु जहां तक हो सके वहां तक स्थानिक सकल संघ की सहानुभूति, अनुशासन, परंपरागत सांस्कृतिक पद्धति, शास्त्रादि की आज्ञानुसार सकल संघ की तरफ से करना चाहिये।
७. प्रत्येक गांव में संघपति और आवश्यकतानुसार उसके सहायक होने चाहिये जो धर्माचार्य के स्थानीय प्रतिनिधि होते हैं। उनकी उचित आज्ञा में सबको रहना चाहिये । वह स्थानीय संघ को बुलावे या न बुलावे परन्तु उसको आज्ञा सबको मान्य करनी चाहिये फिर भी उसको शासन, शास्त्र, संघ, देवगुरु की आज्ञा और सिद्धांत या उसके हितों के विरुद्ध कुछ भी करने का अधिकार नहीं हैं। इस भांति उस गांव या शहर के स्थानीय संघ को शासन की मूल मर्यादा देव गुरु को आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी करने का अधिकार नहीं है । क्योंकि अहिंसक संस्कृति के सब कायों में आज्ञा ओर उसके अनुकूल हित, यह दो मुख्य वस्तु प्रधान हैं और इनका भी उपयोग धर्म साधक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को ध्यान में रख के करना होता है न कि धर्म के बाधक या साधकाभास द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार । यह बात स्पष्ट रीति से समझने जैसी है।
८. विशेष महत्व के प्रसंग पर खुद को सलाह, सूचना, मार्गदर्शन सहायता लेने की या विचारणा करने की जरुरत मालूम पड़े तो श्री संघ के अग्रगण्य व्यक्तियों को या आवश्यकता पड़ने पर
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श्री जैन शासन संस्था
१३]
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सकल संघ को बुला सकते हैं। परंपरा को कार्य पद्धति के अनुसार प्रत्येक काम कर सकते है।
९. श्री संघ में लघुमति या बहुमति या एक मत या सर्वानुमत को स्थान नहीं है। परंतु आज्ञा को प्राधान्य है। उसके अनुकूल अभिप्राय कोई दे सकता है और उन सब पर विचार कर संधपति यथा योग्य रीति से खुद को योग्य लगे उस मुताबिक उसका आचरण अपने उत्तरदायित्व पर कर सकता है या करा सकता है। विचार भेद हो तो दूसरे जैन संघ के अनुभवी अग्रगण्य परिणत तथा जानकार श्रावक श्राविका आदि की सलाह सूचना से दूर किया जा सकता है तथा गुरुमहाराज या आखिर में मुख्य आचार्य महाराज से निर्णय लिया जा सकता है। उनकी आज्ञा अंत में सबके लिये मान्य रहती है।
१०. स्थानीय संघ को स्थानीय या आसपास के जैन संघ या जैन संप्रदायान्तर, जैनेतर जैसे कि इतर धमों, इतर समाजों (राज्य राजादि) के साथ जिनाज्ञा की प्रधानता पूर्वक हितकारी सम्बन्ध स्थापित करना, जो श्री जैन शासन और श्री संघ के लिए हितकारी या विहित हो एवं बाधक न हो।
११. सर्व प्रकार की धर्माराधना परंपरागत रोति से चालू रखना अनिवार्य है। संवभेद न होने देना, श्री जैन शासन में नया सापेक्ष भेद चल सकता है। निरपेक्ष कोई भी विचारभेद, आचार भेद, मतभेद नहीं चल सकता है। किसी गांव या शहर में अलग २ गच्छ हों तो उन गच्छों के निश्चित स्थान का संचालन स्वपरम्परा की आचरण और मान्यता के अनुसार कर सकते हैं।
१२. संघ की कार्यवाही का स्थानः-श्री संघ की जाजम पर सब कार्य किया जा सकता है । जाजम श्री जिन मंदिर के चौक में उसकी छत्रछाया में अनुकूल स्थान में बिछाई जा सकती है।
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१४]
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उपाश्रय, धर्मशाला, पौषधशाला में भी बिछाई जा सकती है। गुरु महाराज के व्याख्यान स्थल यानि समवसरण में भी काम किया जा सकता है। गुरु महाराज हों और उनकी हाजरी आवश्यक हो तो उनको निश्रा में चतुर्विध श्री संघ की मौजूदगी में किया जा सकता है।
___ संघ शामिल होने का समाचार मिलते ही हरएक को समय पर हाजिर होना अनिवार्य है। श्री संव शामिल होने के समय विलम्ब करने वालों पर उस काम के बिगाड़ने की जवाबदारी आती है। शास्त्रों में "धूली जंघ" शब्द ऐसे प्रसंग पर देखे जाते हैं । (बाहर गांव से आया हुआ होने से पैर-जांघ में उसके धूल लगी हुई है) ऐसी दशा में भी सब काम छोड़कर श्री संघ के एकत्रित होने के समाचार मिलते ही हाजिर होना अनिवार्य है।
१३. श्री संघ को जाजम पर झूठ नहीं बोला जा सकता। झूठी तकरार या झूठी जिद नही होनी चाहिए । आज्ञा के विरुद्ध या खुद के स्वार्थ के लिए नहीं बोला जा सकता। जिनाज्ञा सिर चढ़ानी चाहिए। जिनाज्ञा के अनुकूल अभिप्राय देना चाहिये । बिना अर्थ नहीं बोलना चाहिए । झूठ वाद-विवाद, झगड़ा, कलह, आदि से कर्म बन्ध नहीं करना चाहिए। हर एक काम को स्थायी (पूर्ण) करने को नीति रखनी चाहिये । बिगाड़ने की वृत्ति नहीं रखनी चाहिये।
१४. श्री संघ आदि का अपमान, निंदा, अपभ्राजना किसी रूप में न होनी चाहिये। अगर कोई शासत-विधान नहीं माने तो बराबर जवाब देना या दूसरे उपायों से मनाना चाहिये । आखिर में सकल श्री संघ या गुरु महाराज की आज्ञा के अनुसार, मर्यादा में लाना चाहिए । इस पर भी न माने तो सामाजिक तथा इतर सामाजिक बल से और अन्त में दूसरा कोई उपाय न हो तो राजसत्ता के बल से भी उसको मर्यादा में लाने का उचित प्रयास करना चाहिए।
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श्री जैन शासन संस्था
१५]
इतने पर भी नहीं माने तो श्री संघ से बाहर भी किया जा सकता है। चाहे कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो? धर्म प्रधान है, संस्कृति मुख्य है।
स्थानीय श्री संघ, सकल श्री संघ, श्री जैन शासन और जैन धर्म के सब अंग जो कि परंपरागत है, वे सब इस युग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु से चले आते हैं और इस अवसपिणी की अपेक्षा अन्तिम युग प्रधान श्री दुप्पहसूरि तक कम ज्यादा अंश में जारी रहने वाले हैं। अर्थात् गई व भावी चौबीसियों में शाश्वत विद्यमान श्री जैनशासन के हित, संपत्ति, आदर्श, निर्णय, परंपरागत प्रस्ताव आदि की रक्षा करने की जबाबदारी प्रत्येक जैन के जिम्मे है । यह बात कभी किसी को उपेक्षित नहीं करनी चाहिए।
इसलिये जो पांचवे आरे तक जैन शासन चलते रहने को शास्त्राज्ञा मानता हो और उसको चलाने का अपना कर्तव्य समझता हो उसके लिये जरा भी निर्बलता बतलाए बिना, द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के शब्दों से ठगाए बिना, बाधक तत्वों को जरा भी स्थान न देकर, साधक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का रक्षण करने के लिये सदा उद्यत रहने की अधिक तत्परता के साथ सावधान रहने का प्रसंग अभी वर्तमान में आया है।
इसलिये परम्परागत चली आने वाली वस्तु हो, या जो विहित हो, उसमें जरा भी परिवर्तन करके उसमें छोटी मोटी खामी हो तो भी यथाशक्य त्रुटियां दूर करने का प्रयत्न करते रहकर इसके अनुसार चलना यह सन्मार्ग है।
. इसमें बांध छोड़ न्यूनाधिक या जोड़ तोड़ (फेरफार) की गुंजाइश नहीं है, तो भी जहां तक बन सके वहां तक संचभेद न होने देकर काम चालू रखना चाहिए। यदि मजबूरन संघभेद का प्रसंग आये तो भो मूल श्री संघ की परंपरा को सुरक्षित एवं कायम रखे
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१६]
श्री जैन शासन संस्था
ऐसी परम्परा का अनुयायी एक भी व्यक्ति हो तो भी यह श्री संघ है, शासन है और श्री संघ तथा शासन के हर एक अधिकार उसको न्याय की रीति से प्राप्त होते हैं ।
१५. शासन बाह्य वस्तुओं, सिद्धान्तों, तरीकों व साधनों का उपयोग नहीं करना चाहिये बल्कि टालना चाहिये। जबरन कोई भी वस्तु प्रवेश करे तो उसका प्रतिकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। टाली न जा सके तो मजबूरी, बलाभियोग, राजाभियोग, गणाभियोग आदि रूप से शासन या श्री संघ पर आघात आक्रमणादि समझना, अपभ्राजना माननी, परन्तु उसका बचाव करना उचित नहीं है । प्रसंग आने पर उसको दूर करने को जागृति कायम रखना जरूरी है ।
इस पर भी मंदिर, उपाश्रय देवादि द्रव्यों का प्रबन्ध, रक्षण, उपयोग, उपाश्रयों का, गुरु महाराज की भक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, उपाश्रयों की व्यवस्था आदि कार्य श्रावक तथा श्राविका से सम्बन्धित योग्य प्रचलित नियमों की जानकारी कायम कर उस मुताबितक करना चाहिये ।
१६. किसी भी जगह एक-दो जैन व्यक्ति हों वहां जैन शासन या जैन श्री संघ के तत्त्व होते हैं ऐसा समझना और उस माफिक अधिकारों का उपयोग करना चाहिए ।
१७. कोई भी स्थानीय संघ या व्यक्ति अपने को स्वतन्त्र नहीं मान सकता । वह सकल श्रोसघ या शासन, इसी तरह देव गुरु और शास्त्रों की आज्ञा के आधीन है और आखिर में धर्म के तत्त्व - ज्ञान और पंचाचार एवं एवं सिद्धान्तों के आधीन है समझकर चलना आवश्यक है । इससे विरुद्ध हो वह संघ बाहिर और ध्यान देने योग्य नहीं है उपेक्षा या प्रतिकार योग्य है। ऐसे के आदेश हुक्म या आज्ञा
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श्री जैन शासन संस्था
मानने के लिए कोई बंधा हुआ नहीं है। कदाचित अनजान में या दबाब से या विश्वास से या भूल से स्वीकृत हो गया हो, उस पर अपनी सही या स्वीकृति हो तो भी वह अवैध होती है। न्याय से भी व्यर्थ गिनने योग्य है, अमान्य करने योग्य है । जैसे पुरुष का पुरुष के साथ लग्न हो गया हो तो क्या वह अमान्य गिनने योग्य नहीं है ?
इस तरह अज्ञान और धार्मिक हित से विरुद्ध कोई किसी को नियुक्त करे या कोई भी बाबत चाहे जैसी मजबूत रीति से स्वीकृति की हुई हो तो भी वह सच्ची रोति से अमान्य होने के योग्य है । यह सब समझने जैसा है। बहुत सी वस्तुएं श्री जैन शासन और श्री संघ के स बालन के लिये समझने जैसी है, वे सब गुरु मुख से जानने योग्य हैं, विवेक बुद्धि से समझ लेना आवश्यक है। ।
१८. स्थानीय श्री संघ को ध्यान में रखने लायक सकल शासन और सकल श्री संघ के कुछेक सामान्य नियम ऊपर बतलाए गये हैं, उनके आधीन रहकर काम करना उपयुक्त है। उनकी आज्ञा के सापेक्ष सब कार्यवाही करना चाहिये, क्योंकि स्थानीय श्री संघ सर्वथा स्वतंत्र नहीं है। सात क्षेत्र आदि में किसी खाते की रकम कहां-कहां काम आती है ? कहां-कहां काम नहीं आती है ? ऊपर के खातों में जाती है, परन्तु नीचे नहीं जाती, आदि जो शास्त्रीय व्यवस्था है, वह और उसके जैसी दूसरी भी जो धर्म शास्त्रों की आज्ञाएं हैं उसके अनुसार स्थानीय श्री संघ बधा हुआ ही है, यह वस्तु भूलने जैसी नहीं है।
स्थानीय श्री संघ बहुमत या ऐसे किसी भी सिद्धान्त (उसूल) पर अपना स्वतंत्र विधान नहीं बना सकते। ऐसा करना श्री संघ की महा आशातना है और सकल श्री संघ से जुदा होना है। यह ध्यान में रखना चाहिये ।
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श्री जैन शासन संस्था
सिर्फ स्थानीय श्री संघ को अपना कार्य चलाने को सुविधा के लिये सकल श्री संघ के विधान मर्यादा के तत्व ध्यान में रखकर थोड़े से नियम बना लेने में बाधा नहीं है । परन्तु इस पर से बस ! इतने ही नियम हैं, ऐसा मानकर उन्हीं पर कायम रहने की भूल कभी नहीं करनी चाहिये । क्योंकि इन नियमों के सर्वागिण पालन करने में कितने ही महानियम उपयोगी मालम नहीं होते । वे सब श्री संघ का काम करते वक्त ध्यान में लेना जरूरी होता है । इसलिए लिखा हो उतने ही नियम मान्य या स्वीकार्य हैं, ऐसा कभी नहीं समझना चाहिए। कोर्ट न्यायालय में ऐसी स्वीकृति न हो जावे इसलिए पूरा ध्यान रखना चाहिए कि नियम सिर्फ सामान्य रूपरेखा मात्र है, काम चलाने की सहुलियत के लिए हैं। इसके अतिरिक्त हमारे सकल श्री संघ शास्त्रों और मुनि महाराजों की आज्ञा से फलित होते नियम बहुत से हैं । यह सब स्वीकार करने, मानने के लिए हम (स्थानीय सघ) बंधे हुए हैं ।
१८]
आज इस तरह जैन शासन को मर्खादा के विरूद्ध वैधानिक नियमों या कायदों का निर्माण होता है वह न्यायानुकूल नहीं है।
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श्री जैन शासन संस्था
____ १९]
परिशिष्ट १ ७ क्षेत्र आदि
(१) जिन प्रतिमा (२) जिन मन्दिर (३) सम्यक ज्ञान (४) साधु (५) साध्वी (६) श्राक्क (७) श्राविका ।
(१) जिन प्रतिमा :-जिन प्रतिमा की पूजा के लिये किसी भी व्यक्ति का भक्ति से समपित द्रव्य. जिन बिम्ब द्रव्य है । प्रतिमाजी की अंग पूजा का द्रव्य जिन बिम्ब द्रव्य है। यह द्रव्य नवीन प्रतिमा भरने, बिम्ब के लेप करवाने, आंगी कराने प्रभु प्रतिमाताजी के चक्षु, टीका, आदि हर प्रकार की रक्षा के कार्य में खर्च हो सकता है। यह द्रव्य जिन बिम्ब के कार्य में होआ सकता है अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में खर्च नहीं किया जा सकता है।
(२) जिन मन्दिर :-(जिन चैत्य) भक्ति पूर्वक देवादि के हेतु समपित द्रव्य भी देव द्रव्य है। स्वप्न को बोली-१. च्यवन २. जन्म ३. दीक्षा ४. केवल ५. मोक्ष (निर्वाण) इन पांचों कल्याणकों के निमित जिन मन्दिर उपाश्रय या अन्य किसी भी जगह पर प्रभु भक्ति निमित्त बोली हुई उच्छामणी की रकम यह सब देव द्रव्य है । प्रभु पूजा, आरती, मंगल दीपक, अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव, उपधान को प्रबेशशुल्क (निछरावल) उपधान की माल, तीर्थ माल, इन्द्र माल आदि सभी बोली जो तीर्थंकर भगवान के आश्रित बुलवाई जावे वे सब ही देव द्रव्य हैं । इस द्रव्य का उपयोग प्राचीन जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार, नूतन मन्दिर के निर्माण और मन्दिर पर आक्रमण के समय रक्षा तथा देव और जिन चैत्य की भक्ति निमित्त कायों में किया जा सकता है। श्राद्धविधि में कहा है "जिनेश्वर भगवान की भक्ति, पूजा श्रावक को अपने निजी द्रव्य से
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२०]
श्री जैन शासन संस्था
ही करनी चाहिये । किन्तु जहां पर श्रावक का घर नहीं है, तीर्थं भूमि है या स्थानीय संघ प्रभु पूजा में खर्च करने की शक्ति वाला नहीं है, वहां पर देव द्रव्य से भी प्रभु पूजा हो सकती है, अपूज नहीं रहने चाहिये” इसलिए जहां पर श्रावक निजी खर्च न कर सकते हों वहां पर जैनेतर पुजारी की तनख्वाह, केसर, चन्दन, अगरबत्ती आदि का खर्चा इस खाते में से हो सकता है । देव द्रव्य श्रावकों को निजी किसी भी उपयोग में लाने का शास्त्रों में निषेध किया है ।
यदि पुजारी श्रावक श्रावक है तो उसका वेतन साधारण खाते से देना चाहिये । प्रभु प्रतिमा व मन्दिर सम्बन्धी तमाम व्यवस्था का जरूरी खर्च इस द्रव्य से हो सकता है। सिर्फ जैन श्रावक को नहीं देना चाहिए, अन्यथा लेने व देने वाले दोनों पाप (दोष) के भागी होते हैं। उपर्युक्त दोनों क्षेत्र देवद्रव्य सम्बन्धी परम पवित्र हैं । यह द्रव्य प्रथम खाते के द्रव्य के द्रव्य के साथ जिनप्रतिमाओं के काम में खर्च हो सकता है। श्री श्राद्धदिनकृत्य सूत्र में कहा है कि "जो प्राणी देव द्रव्य का या देव के उपकरणादिक का विनाश करता है, भक्षण करता है अथवा अन्य द्वारा भक्षण होते देख उसकी उपेक्षा करता है, अंग उधार देते मना नहीं करता है, वह प्राणी बुद्धिहीन होता है और पाप कर्म से लेपायमान होता है ।
(३) ज्ञान द्रव्य :- - ( क ) आगम धर्मशास्त्र की उपासना हेतु शास्त्र पूजन, प्रतिक्रमण सूत्रों की बोली, कल्प सूत्र, बारसौ सूत्र की बोली का द्रव्य ज्ञान द्रव्य है ।
यह द्रव्य साधु साध्वी के पठन पाठन में अजैन पंडित को वेतनादि देने में, ज्ञान भण्डार के लिये धार्मिक शास्त्र, साहित्य के खरीदने में खर्च हो सकता है। जैन पंडित या जैन पुस्तक विक्रेता को नहीं देनी चाहिये । उनके लिए साधारण खाते से या श्रावक का
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श्री जैन शासन संस्था
२१]
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निजी द्रव्य देना चाहिये । ज्ञान भण्डार का श्रावक श्राविकायें उपयोग करें तो वाषिक निछराबल देना चाहिए । ज्ञानद्रव्य धार्मिक आगम शास्त्र लिखवाने, छपवाने, उनकी रक्षा के लिए जरूरी चीज वस्तु लाने में खर्च हो सकता है। ज्ञान भण्डार के लिए ज्ञानमन्दिर बनवा सकते हैं किन्तु इस ज्ञान द्रव्य से बने मकान में साधु-साध्वियां पौषध व्रत वाले व श्रावक श्राविकायें निजी उपयोगमें-शयन, रहना, ठहरना आदि कार्य में उसका उपयोग नहीं कर सकते हैं। यह क्षेत्र देव द्रव्य जैसा ही पवित्र है इसलिए साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं के लिए निजी उपयोग में नहीं आ सकता है । व्यवहारिक शिक्षा में भी इस द्रव्य का उपयोग नहीं हो सकता है ।
ज्ञान शब्द का अर्थ जैन शास्त्रों में सम्यग्ज्ञान बतलाया है । श्री द्रव्य सप्ततिका में बतलाया है कि देव द्रव्य की तरह ज्ञान द्रव्य भी श्रावक को नहीं कल्पता है ।।
चेइयदवं साधारणं च जो दूहइ मोहियमईओ। धम्मं च सो न याणेई अहवा बद्धाउओ नरए ।
द्रव्य सप्ततिका (४) धामिक शिक्षा खाता :- (समर्पित द्रव्य) सामिक श्रावक-श्राविकाओं ने अपना निजी द्रव्य धार्मिक अभ्यास के लिए समर्पण किया हो तो, इस रकम से श्रावक पंडित अध्यापक रख कर साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं को धार्मिक पठन-पाठन करवाया जाय तथा पुस्तक, पारितोषिक आदि पर खर्च किया जाय । किन्तु यह द्रव्य व्यवहारिक शिक्षण में किसी भी प्रकार से उपयोग में नहीं आ सकता है ।
(५) साधु-साध्वी क्षेत्रः-संयमधारी साधु-साध्वी महाराज की भक्ति वैयावच्च के लिए, दानियों द्वारा भक्ति निमित्त प्राप्त हुई रकम साधु साध्वीजी महाराज के संयम शुश्रूषा और
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श्री जैन शासन संस्था
विहार आदि को अनुकूलता के लिए होता है। इन क्षेत्रों का द्रव्य आवश्यकता पड़ने पर ऊपर के तीन क्षेत्रों में श्री संघ की आवश्यकतानुसार खर्च किया जाता है । किन्तु नीचे के दो श्रावकश्राविकाओं के क्षेत्रो में खर्च नहीं हो सकता ।
(६-७.) श्रावक-श्राविका क्षेत्र :--भक्ति भाव से इस क्षेत्र में समपित हुआ द्रव्य श्रावक-श्राविकाओं को धर्म में स्थिर करने के लिए आपत्ति के समय सहायता के लिए और हर एक प्रकार की भक्ति के लिए है । यह धार्मिक पवित्र द्रव्य है, इसलिये चेरिटी सामान्य जनता, याचक, दीन, दुखी ऐसे किसी भी मानव या संस्था के दया अनुकम्पा आदि व्यवहारिक कार्यों के उपयोग में नहीं आ सकता है।
(८) गुरु द्रव्य :-पंच महाव्रतधारी संयमी त्यागी महापुरुषों के सामने गॅहली, अंगपूजा के समय अपंण किया या गुरुपुजा की बोली का द्रव्य जिनचत्य के जीर्णोद्धार तथा नवीन चैत्य के निर्माण में ही खर्च करने का द्रव्यसप्ततिका में उल्लेख है। कहीं-२ सेवक या पुजारी का लाग हो तो उनको दिया जावे अन्यथा देव द्रव्य जीर्णोद्धार खाते में जाना चाहिये । श्री कुमारपाल राजा प्रतिदिन एक सौ आठ स्वर्ण कमलों से श्री हेमाचार्य की पूजा किया करते थे । प्रश्नोत्तर समुच्चय, आचारप्रदीप, अचारदिनकर, श्राद्धविधि आदि ग्रन्थों में श्री जिन और गुरु को अंग और अग्र पूजा का वर्णन मिलता है ।
(९) साधारण द्रव्य :-यह साधारण क्षेत्र का द्रव्य धामिक रिलीजियस (Religious) है। सात क्षेत्रों में से कोई भी क्षेत्र सीदाता होवे यानि घाटे में हो तो आवश्यकतानुसार इस क्षेत्र का द्रव्य उपयोग में आ सकता है। किन्तु व्यवस्थापक या कोई श्रावक निजी उपयोग में नहीं ले सकते है। न दीन-दुःखी या किसी भी जन-साधारण, सर्वसामान्य लोकोपयोगी, व्यवहारिक व
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श्री जैन शासन संस्था
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जनेतर धार्मिक कार्य में ही खर्च कर सकते हैं। ऐसा द्रव्यसप्ततिका में स्पष्ट पाठ है । इस खाते का द्रव्य चेरिटी के उपयोग में या व्यवहारिक शिक्षण या कोई भी सांसारिक कार्य में खर्च नहीं हो सकता है।
(१०) आयंबिल तप :-यह खाता आयंबिल करनेवाले तपस्वी व्यक्ति के लिये है इसलिए इस खाते का द्रव्य आयंबिल की तपस्या का प्रचार, वृद्धि, रक्षा व सुविधा की व्यवस्था आदि में खर्च हो सकता है। द्रव्य की अधिकता होवे तो अन्य ग्रामों में हर किसी स्थल पर आयंबिल तप करने वालों की भक्ति में खर्च हो सकता है । संक्षेप में यह द्रव्य आयंबिल तप और तपस्वियों की भक्ति के सिवाय अन्य किसी कार्य में खर्च नहीं हो सकता है। यह खाता भी केवल धार्मिक है । आयंबिल भवन का उपयोग धामिक प्रवृति के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में नहीं किया जा सकता ।
(११) धारणा, पारणा, स्वामीवात्सल्य, नवकारसी खाता:-पोषधवालों, एकासण प्रभावना आदि-उपरोक्त खातों में समपित या बोला और भी ऐसे ही भिन्न २ खाते तप-जप और तीर्थ यात्रा द्रव्य आदि धार्मिक कार्य करने वाले सार्मिकों को भक्ति करने निमित्त समर्पित द्रव्य द्रव्यदाता की भावनानुसार उन्हीं खातों में लगाना चाहिये । आधिक्य होवे तो सातों क्षेत्रों में जहां आवश्यकता हो वहां खर्च हो सकता है । किन्तु सार्वजनिक किसी भी कार्य में खर्च नहीं हो सकता है। यह सब द्रव्य केवल धार्मिक क्षेत्रों का द्रव्य है ।
(१२) निश्राकृत :-दानियों द्वारा विशिष्ठ खास प्रकार के धार्मिक कार्य में दिया हुआ द्रव्य उसी कार्य में खर्च करना चाहिये। आधिक्य होवे तो ऊपर के खातों में अन्य स्थल में खर्च हो सकता है।
(१३) कालकृत :-किसी खास समय पर जैसे पोष
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श्री जैन शासन संस्था
दशमी, अक्षय-तृतियादि पर्वो के निश्चित दिनों में खर्च करने के लिये दाताओं को दी हुई रकस उसी दिन उसी भक्ति के कार्य में खर्च करनी चाहिए।
(१४) उपाश्रय :-धर्मशाला यानि धार्मिक क्रिया करने का स्थान । यह स्थान साधु साध्वी व श्रावक श्राविकाओं के धार्मिक आराधना के लिये पवित्र धार्मिकस्थान है । इसका उपयोग धार्मिक कार्य के लिए ही होता है। व्यावहारिक कोई भी कार्य स्कूल, राष्ट्रीय प्रवृत्ति आदि कोई भी समारोह, सभा या किसी भी प्रवृति में इस धार्मिक स्थान का उपयोग नहीं हो सकता है। इन स्थानों में गवर्नमेन्ट या सांसारिक कार्यों में मुआवजा देकर भी काम में नहीं ले सकेंगे, न कब्जा ही कर सकेंगे। क्योंकि यह तो जैन शासन का अबाधित स्थान है और रहेगा ।
(१५) अनुकम्पा :-पांच प्रकार के जिनेश्वर प्रणीत दानों में अनुकम्पा का समावेश है। कोई भी दोन दुःखी, निःसहाय, वृद्ध, अनाथ आत्माओं के अन्न, पान, वस्त्र, औषधि आदि देकर द्रव्य और भाव दुःख टालने का प्रयत्न प्रयास इस द्रव्य से हो सकता है । यह सामान्य कोटि का द्रव्य होने से ऊपर के किसी भी धार्मिक क्षेत्र में उपयोग नहीं किया जा सकता किन्तु जीव दया में खर्च हो सकता है। .
(१) जीवदया :-इस खाते का द्रव्य प्रत्येक तिर्यंच जानवर की द्रव्य और भाव दया के कार्य में अन्न, पान, औषध आदि से हर एक प्रकार के साधनों से उनका दुःख दूर करने के लिये मनुष्य के सिवाय प्राणीमात्र की दया के कार्य में खर्च हो सकता है। यह द्रव्य अति कनिष्ठ कोटि का होने से दूसरे किसी उच्च क्षेत्र में खर्च नहीं होकर जीवदया की रकन जीवदया में ही लगाना चाहिए।
(१७) ब्याज किराया आदि आमद :-जिस खाते या
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श्री जैन शासन संस्था
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क्षेत्र की रकम की आमद होवे या भैद व आदि वृद्धि होवे वह रकम उस-उस खाते व क्षेत्र में जमा करके उसी खाते में खर्च होना चाहिए। अपने स्थल की आवश्यकता से ज्यादा होवे तो वह द्रव्य अन्य किसी भी स्थान में आशातना टाल कर उसी क्षेत्र के लिये भक्ति रूप से देना यह जैन शासन को अनुशासन और मर्यादा है । नोट :- यहां पर जिन-जिन क्षेत्रों-खातों का निर्देश किया है वह सामान्य रूप से जनरल बातों का किया है । इसके अलावा और भी खाते और बहुत प्रकार के विधि-निषेध की आज्ञाएं शास्त्रों में हैं, उनका उत्सर्ग अपवाद भी है। वहीवटदार, कार्यवाहक, शास्त्राज्ञा और तद्नुसार गुरु आज्ञा पाकर वहीवट वर्तन किया करें यही योग्य है ।
विशेष जानकारी
१. सात क्षेत्रादि गुणी -गुण आराधना के धार्मिक क्षेत्रों में नीचे के क्षेत्र का द्रव्य ऊपर के क्षेत्र में काम में आ सकता है ।
२. सांसारिक सखावती द्रव्य धार्मिक क्षेत्र में खर्च हो सकता है । ३. ऊपर के क्षेत्र का नीचे के क्षेत्र में न जा सके जैसे [१] देवद्रव्यजनप्रतिमा [२] जिनमंदिर [३] धार्मिक ज्ञान [४] साधु [५] साध्वी [६] श्रावक [७] श्राविका । नम्बर एक क्षेत्र का द्रव्य एक में ही खर्च हो सके, दूसरे में नहीं । नम्बर दो का ऊपर के एक नम्बर में जावे नीचे [३], [४] [५], [६], [७] क्षेत्र में खर्च नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सब क्षेत्रों के लिए समझना ।
४. धार्मिक क्षेत्र का द्रव्य सखावती क्षेत्र में परिवर्तन नहीं हो सकता है ।
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श्री जैन शासन संस्था
अनुकम्पा क्षेत्र में अपवाद अनुकम्पा क्षेत्र में में अपवाद इस तरह है-हिसा त्यागरूप और जीवदयारूप अनुकम्पा क्षेत्र है। १. अनुकम्पा का द्रव्य ऊपर के अधिक गुणयुक्त आराधना के क्षेत्र में भी नहीं जा सकता।
या तो ऊपर के गुण-गुणी आराधना के क्षेत्र में से भी नहीं ले सकते । अनुकम्पा में खर्च हो नहीं सकते, कारण ऊपर के क्षेत्र गुण-गुणी का उच्च क्षेत्र होने से नीचे के क्षेत्र में काम न आ सके। ऐसे अनुकम्पा का क्षेत्र दयापात्र और निराधार है। इससे वह द्रव्य ऊपर के समर्थ क्षेत्र में जाना भी नहीं चाहिये, यह
शास्त्रज्ञा है। -- २. अनुकम्पा क्षेत्र में उच्च कक्षा के जीव की रक्षा मुख्यता से करने
की है जैसे (क) अनुकम्पा दान में प्रथम दानदुःखी निराश्रित मानव को दान करना चाहिये उनके भी भेद प्रभेद हैं। (ख) मानव के बाद दूसरे पंचेन्द्रीय पशु पक्षी जानवर की दया आती है। (ग) फिर चउन्द्रीय, तेन्द्रिइय, बेइन्द्रीय, एकेद्रिय जीव
की दया भी होती हैं। ३. परन्तु उनमें-(अ) उच्च कक्षा को समर्पण किया हुआ द्रव्य उतरती कक्षा में खर्च हो सकता है।
(आ) किन्तु उतरती कक्षा के जीव को अर्पण किया हुआ द्रव्य उच्च कक्षा वाले जीव के काम में न आवे ।
कारण-(अ) उच्च कक्षा के जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है, इससे उनकी प्रथम रक्षा करनी परन्तु उतरती कक्षा को समर्पण किया हुआ द्रव्य (दान) उच्च कक्षा के उपयोग में न लेना चाहिये । कारण यह निकृष्ट द्रव्य निर्माल्य द्रव्य होता
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श्री जैन शॉसन सस्था
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है और उच्च कक्षा के जीव के लिए समर्पण हुआ द्रव्य उतरती कक्षा के काम में आ सकता है । कारण उच्च कक्षा वाला जीव उदार और अधिक शक्तिमान् समर्थ है इससे बड़े उच्च कक्षा वाले जीव का कत्र्तव्य है कि वह छोटे जीव की सहायता एवं रक्षा करे ।
४. सदाव्रत :- - (अ) धार्मिक वात्सल्य - ब्रह्म भोजन आदि गुणी के सम्मान बहुमान - भक्तिपूर्वक का भोजन है ।
(आ) भक्ति के पात्र में अनुकम्पा नहीं हो सकती । (इ) अनुकम्पा वाले पात्र में भक्ति न होवे ।
द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ग्रन्थ के आधार से
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२८]
श्री जैन शासन संस्था
परिशिष्ट २ श्री शत्रुञ्जय तीर्थ को पुनीत छाया में सिद्धिक्षेत्र पालीताणा में विराजमान श्री श्रमण संघ के निर्णयों का पहला और तीसरा निर्णय :
श्री सिद्धक्षेत्र पालीताणा में विराजमान समस्त जैन श्वेताम्बर श्रमण संघ ने वि० सं० २००७ वैशाख सुदी ६ शनिवार से वैशाखी सुदी १० बुधवार तक प्रतिदिन दुपहर में बाबू पन्नालाल की धर्मशाला में एकत्रित होकर विक्रम सं० १९९० में राजनगर में हुए अखिल भारतवर्षीय श्री जैन श्वेताम्बर मुनि सम्मेलन में "धर्म में बाधाकारी राज्यसत्ता के प्रवेश को यह सम्मेलन अयोग्य मानता है" इस ग्यारहवें निर्णय पर पूर्वापर विचारणा करके सर्वानुमति से निर्णय किया।
(१) यह श्रमण संघ मानता है कि वर्तमान सरकार धर्मादा ट्रस्ट बिल, भिक्षाबन्धी, मध्यभारत दीक्षा नियमन, मन्दिर में हरिजन प्रवेश और विहार रिलीजीयस एक्ट आदि नियम बनाकर धर्म में अनुचित हस्तक्षेप करती है। वह योग्य नहीं, ऐसा करने का सरकार को कोई अधिकार नहीं। विदेशी सरकार थी उस समय भी जो हस्तक्षेप नहीं हुआ था वह भारतीय सरकार को तरफ से होवे, यह अत्यन्त अनिच्छनीय बात है । तीसरा निर्णय :
यह श्रमण संघ मानता है कि जैनों की जो जो संस्थाए सात क्षेत्र, धर्मस्थान, मन्दिर, उपाश्रय आदि है वो प्रत्येक अपनेअपने अधिकार माफिक श्रमण प्रधान चतुर्विध संघ को मालिको की है। उनके वहीवटदार वर्ग श्री श्रमण संघ के शास्त्रीय आदेश
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श्री बंन शासन संस्था
माफिक कार्य करने वाले सेवाभावी सद्गृहस्थ हैं । वहीवटदारों को शास्त्राज्ञा और संघ की मर्यादा को बाधक हो, ऐसा कुछ भी करने का अधिकार नहीं है और सरकार को भी श्री संघ का हक नष्ट कर वहीवटदारों को ही उन संस्थाओं का सीधा मालिक मानकर उनके द्वारा अपना हक स्थापित करना योग्य नहीं। इतना होते हुए भी वहीवटवार या सरकार ऐसा कोई अनुचित पगला (Step) लेवे तो उनको ऐसा करते हुए अटकाने के लिये यथाशक्य अधिकार माफिक सक्रिय प्रयत्न करना ।
स्थल :
लो० :
बाबू पन्नालाल की धर्मशाला वि. | श्री पालीताणा स्थित समस्त सं. २००७ वै. सु. १० बुधवार | श्रमण संघ की तरफ से आ०
श्री विजयवल्लभ सूरिजी - ता. १५-५-५६
म० की आज्ञा से पं० समुन्द्र भगवान श्री महावीर केवल ज्ञान विजयजी . कल्याण दिन
आ० कीर्तिसागर सूरि आ० वि० महेन्द्र सूरि आ० वि० हिमाचल सूरि
आ० वि० भुवनतिलक सूरि
| मा० चन्द्रसागर सूरि __ आचार्य, उपाध्याय, पन्यास और मुनिवर मिलकर कुल १५० डेढ़ सौ उपरान्त मुनिराजों की हाजिरी करीब-करीब सब समुदाय की पी।
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श्री जैन शासन संस्था
परिशिष्ट ३.
चुनाव पद्धिति के भयंकर नुकसान का उपसंहार
१. सत्ता लोलुपता, प्रचार और आर्थिक बल से चुनाव जोता जाना स्वाभाविक है । इससे सच्चे, प्रामाणिक, मूक सेवा करने वाले योग्य व्यक्ति की कार्यशक्ति का लाभ संघ को नहीं मिलता है ।
३० }
२. चुनाव पद्धति में आने वाले को अपने निजी अभिप्राय से वोट देने का अधिकार मिलता है। आज्ञा प्रधानता अर्थात् सुदेव, सुगुरु, सुधर्म को आज्ञा, शिस्त, मर्यादा की अधीनता नहीं रहती है। ३. चुनाव में अधिक मत प्राप्त करने वाले भले धार्मिक परम्परा शास्त्र ज्ञान आदि से अज्ञात हों तो भी उनको काम करते का अधिकार प्राप्त हो जाता है और जानकार, योग्य व्यक्ति का अनुभव - कथन ध्यान में भी नहीं लिया जाता है ।
४. जैन शासन में ऊपर से आज्ञा चली आती है जैसे अरिहंत तीर्थंकर एक, उनकी आज्ञा आचार्य उपाध्याय साधु हजारों लाखों करोड़ों की संख्या वाले मानते हैं । आचार्य एक, उनका कथन करोड़ों श्रावक, धाविकाओं को महाजनों को, मान्य होता है । जब आज की बहुमती में प्रमुख के एक बाजु ४९ सच्ची बात करने वाले होवे और एक तरफ ५१ मत उस बात के विरूद्ध हो तो भी बहुमत के सिद्धान्त अनुसार प्रमुख को असत्य बात के आधीन होना पड़ता है । ५. समूह, संघ और समाज में अनुभवी, जानकार, सूक्ष्मता पूर्वक दीर्घ दृष्टि से समझने वालों की बहुत ही कम संख्या होती है । बहुमतवाद के चुनाव में ऐसे अनुभवी, दीर्घद्रष्टा भावी हिताहित सोचने वालों को मौन रहना पड़ता है। इससे सच्ची बात का पालन प्रायः कम हो जाता है ।
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श्री जैन शासन सस्था
३१]
६. चुनाव करने वाले ( Voters) १८ वर्ष हो जाने मात्र से सभी कोई जानकार और अनुभवी नहीं है और उनकी संख्या हमेशा ज्यादा रहती है। इससे प्रलोभन के कारण चुनाव में योग्य व्यक्ति विशेष प्रमाण में नहीं आ सकते है ।
७- इसलिये योग्यता के आधार पर पंसदगी की पद्धति यह सच्ची भारतीय संस्कृति है और श्री जैन शासन सर्वज्ञ प्रणीत आज्ञा प्रधानता मुख्य होकर अनंत जीवों का कल्याण अनादि काल से हो रहा है और होगा ।
चुनाव पद्धति बहुमतवाद, वोटिंग आदि पद्धति से हरएक नियम आदि में समय - २ पर फेरफार करना पड़ता है । जब श्री जैन शासन अनादि अनंत है यह अपना प्रभु महावीर के शासन का विधान जी आज से करीब पचीस सौ वर्ष पूर्व हुआ । वह भविष्य में भी करीब साढ़े अठारह हजार वर्ष तक कायम रहेगा । यह चुनाव और बहुमतवाद पद्धति में कभी रह सकता नहीं, क्योंकि कलिकाल में धर्माराधन करने वाले और सच्ची जानकारी वाले श्रद्धावान् आत्माओं की संख्या कम होती जा रही है । इससे मूल विधान कायम रख कर उस पर चलना चाहिये ।
८. चुनाव बहुमतवाद से, अपने निजी अभिप्राय से सर्वज्ञ भगवंत की आज्ञा, शास्त्राज्ञा गुरु आज्ञा, परम्परा, शासन की शिष्ट मर्यादा आदि का लोप होता है, यह भयंकर नुकसान है ।
९. पाश्चात्य पद्धति के पाये पर खड़ी हुई चुनाव बहुमतवाद वोटर्स वोटिंग प्रमुख ट्रस्टी संस्थाएं आदि पद्धति से अब वर्तमान राष्ट्रव्यवस्था की परिस्थति भी डाँवाडोल हो रही है और भारतवर्ष में अनीति अप्रामाणिकता, सत्ता लोलुपता और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है । यह खराबी श्री जैन शासन और श्री संघ
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३२]
श्री जैन शासन संस्था
में प्रविष्ट न होवे इस कारण से जैनत्व घराने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि धर्म की बाबत में इस अनिष्ट संक्रामक रोग को भंयकरता समझकर इससे दूर रहना चाहिये ।
१०. विशेष में श्वे मू० संघ में गर्भ से बालक बालिका या प्रत्येक पुरुष स्त्री व्यक्ति श्रावक, श्राविका के रूप में श्री जैन श्वे. मू० परम्परा के अनुयायी (सभ्य) हैं। इससे मताधिकार जैसी वस्तु की कल्पना भी जैन शासन में अनर्थकारी है। योग्य व्यक्ति शासन शिस्त की मर्यादा में अपने क्षयोपशम माफिक हित बुद्धि से अभिप्राय पेश कर सकता है। श्री जैन शासन में एक महान् आचार्य का श्री जैन सकल संघ के हित में और संचालन में पूर्ण सहानुभूति वाले सक्रिय प्रयासों का जो स्थान है, वही स्थान प्रत्येक जैन व्यक्ति का भी है, जिससे प्रभु आज्ञा अनुसार योग्य रूप में अपना अभिप्राय देने का सबको अधिकार है। धावक के छोटे बच्चे (पूर्व भव का समकिती होवे या आठवें वर्ष में प्राप्त करें) के समयक्त्व और श्री गौतम स्वामीजी महाराज जैसे गणधर भगवन्त के समयक्त्त में अन्तर नहीं। इससे मताधिकार जैसी कोई चीज जैन शासन में है ही नहीं, बल्कि भारतीय आर्य संस्कृति में ही नहीं है। यह देन पाश्चात्य संस्कृति एवं विदेशीय शासनकर्ताओं की थी, उसका वर्तमान में अन्धानुकरण करने से डेमोक्रेसी के नाम से भारत में अनर्थ को परम्परा बढ़ रही है। इससे प्रत्येक समझदार व्यक्ति को सावधान होकर इस अनर्थकारी पद्धति से बचने बचाने की पूरी आवश्यकता है।
MYTM
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श्री जन शासन संस्था
३३]
परिशिष्ट ४ सं० २०१४ (सन १९५७) के चातुर्मास में श्री राजनगर (अहमदाबाद) स्थित श्री श्रमण संघ की तरफ से सात क्षेत्रादि धामिक व्यवस्था का दिग्दर्शन ।
श्री जैन शासन के धार्मिक क्षेत्रों के वहीवट और दृष्टों के लिये सरकारी अधिकारी वर्ग, चैरिटी कमिश्नर आदि की तरफ से नोटिस और कोर्ट के केशों से सेवाभावी वहीवटदार कार्यकर्ताओं को कठिनाई होती है और कितनेक स्थलों में अपने धार्मिक बंधारण से विरूद्ध भी जजमेन्ट कोर्ट की तरफ से हुवे हैं। इसके अनुसंधान में श्री जैन शासन के सात क्षेत्र और अन्य धार्मिक वहीवट की व्यवस्था जिस रीति से शास्त्र और परम्परा की रीति से चली आ रही है, उसका स्पष्टीकरण सरकार और संघों को सूचित करने में आवे तो एकवाक्यता रह सके और धर्मशास्त्र तया चालू रिवाज से विरुरू होने न पावे, इस शुभ आशय से आगेवान श्रावक वर्ग
और वहीवटदारों की तरफ से मांग (विनती) होने से अहमदाबाद स्थित पूज्यश्री श्रमण संघ की एक बैठक भादवा सुदी आठम रविवार श्री डहेला के उपाश्रय में हुई थी। उसमें कच्चा (चिट्ठा) खरडा तैयार करने के लिये सात मुनिराजों को सौंपा । तदनुसार तैयार हुआ कच्चा खरडा (चिट्ठा) आसोज वदी (भादवा वदी) अष्टमी मंगलवार ता० १७-९-५७ के रोज श्री श्रमण संघ के समक्ष रजु होकर विचार विनिमय के बाद योग्य सुधार (कमी वेशी) बधारा किया और अहमदाबाद से बाहर स्थित पू० आचार्य भगवंतादि की अनुमति प्राप्त करने के लिये भेजा गया था। करीब-करीब सबको सम्मति प्राप्त हुई और जो सुधाराबधारा सूचनादि आये वे भी समाविष्ट किये गये जिसका व्यौरा रूपरेखा सहित निम्न प्रकार है ।
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३४ ]
श्री जैन शासन संस्था
देव द्रव्य
(१) जिन प्रतिमा देवद्रव्य की व्याख्या :
(२) जैन देरासर (मन्दिर)
प्रभुना मंदिरमा के मन्दिर बहार गमे ते ठेकाणे प्रभुना पांच कल्याणकादि निमित्ते तथा माला परिधानादि देवद्रव्यवृद्धिना कार्य थी आवेल तथा गृहस्थोए स्वेच्छाए समर्पण करेल इत्यादि देवद्रव्य कहेवाय ।
उपयोग
सं० १९९० श्री श्रमणसंघना निर्णयानुसार ।
( १ ) श्रावकोए पोताता द्रव्यथी प्रभुनी पूजा विगेरेनो लाभ लेवोज जोईए, परन्तु कोई स्थले अन्य सामग्रीना अभावे, प्रभुनी पूजा आदिनो बांधो आवतो जणाय, तो देवद्रव्यमाथी प्रभु पूजा आदिनो प्रबंध करी लेवो, पणप्रभुनी पूजा आदि जरूरी थवा जोईए ।
(२) प्रभु प्रतिमा अंगे पूजाना द्रव्योथी, लेप आंगी आभूषणो आदि प्रतिमा भक्ति अंगेनु खर्च करी शकाय ।
(३) जीर्णोद्वार, नवं देरासर, समारकाम तथा देरासर संबंधी बांधकाम, रक्षाकार्य साफसुफी विगेरे कार्यमां खरची शकाय (४) प्रतिमा के देरासर ऊपर आक्रमण या आक्षेप ना प्रतिकार माटे तथा वृद्धि टकाव विगेरे माटे खरची शकाय ।
(५) उपरना तमाम कार्यों माटे ते देरासर तथा ते उपरांत बहारना बोजा कोईपण गामना देरासर प्रतिमा अंगे पण आपी शकाय ।
देवद्रव्यना व्ययनी बधु विगत सं० १९९० ना मुनि सम्मेलन नो ठराव, सं० १९७६ नो खंभातनो ठराव अने उपदेशपद,
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श्री जैन शासन संस्था
३५]
संबोध प्रकरण, श्राद्धविधि, दर्शनशुद्धि, द्रव्यसप्ततिका विगेरे ग्रंथोंथी जाणी शकाय छ ।
(३) ज्ञान द्रव्य (त्रीजु क्षेत्र) ज्ञान द्रव्य व्याख्या :
ज्ञान पूजननी रकम, ज्ञान भक्ति माटे आवेल रकम, आगम शास्त्रों विगैरेनी भक्ति माटे बोलायेल बोलीनी रकम, कोई पण तपमां श्रुतज्ञाननी भक्ति निमित्त उत्पन्न थयेल द्रव्य, प्रतिक्रमण सूत्रनी बोली आदि ज्ञान भक्तिनु द्रव्य ज्ञानद्रव्य गणाय ।
उपयोग
(१) आगमशास्त्रादि धार्मिक पुस्तको, अध्ययनादि माटे विविध साहित्यादिना पुस्तको लखाववा, छपाववा, कागलो अने तेना साधनो खरीदवा, लहीआओने (जैन शीवायना) आपवामां अने साहित्यना रक्षणमा खरची शकाय ।
(२) साधु साध्वीओने भणाववामां (अध्ययनमा) जैनेत्तर पंडितोने पगार महेनताणुं के पुरस्कार आपी शकाय ।
(३) ज्ञानखातीनी रकमोर्माथी ज्ञान भंडार करी सकाय ।
(४) गृहस्थीए जो पोतानुं द्रव्य ज्ञाननी वृद्धि रक्षादिना कोई पण कार्यमां आपेल होय तेमां थी जैनोने पण पगार के महेनताणुं आपो शकाय पण ज्ञान द्रव्यमां थी श्रावक श्राविकाने पगार के महेनताणुं न आपी शकाय ।
(५) ज्ञानद्रव्य थी बंधायेल मकानमां, ज्ञानभक्ति, पठन पाठन, पूजाआदि कार्यो थई शके पण साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका
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३६]
श्री जन शासन संस्था
के कोई पण गृहस्थना रहेठाण विगेरे अंगत कार्यो माटे ते मकाननो उपयोग थई शके नहि ता० क० ज्ञान शम्बनो सम्यक ज्ञान अर्थात् जैन धार्मिक ज्ञान छ । आमां व्यवहारिक केलवणीनो समावेश थई शके नहीं। साधु-साध्वी (चोंथु पाँच, क्षेत्र):
श्रावक श्राविकाए पोताना तरफथी भक्ति निमित्त काढेल द्रव्य अने श्री संघमायी साधु साध्वी वैयावच्च निमित्त टोपथी (चंदाथी) एकत्र करेल जे द्रव्य ते साधु साध्वी वैयावच्चमां खरची शकाय।
श्रावाक श्राविका क्षेत्र (छठटुं अने सात)
धावण श्राविकाओने धर्म भावना टकी रहे ए उद्देश थी एना जीवन निर्वाह माटे आ क्षेत्रनुं द्रव्य आपी सकाय ।
(८) साधारण खातु १. सात क्षेत्र तथा बोजा धार्मिक कार्यो निमित्ते एकत्र करेल
द्रव्य ते साधारण द्रव्य कहेवाय । २. आ साधारण द्रव्य सात क्षेत्र पैकी तथा बीजा धार्मिक कार्यो
पैकी कोईपण धार्मिक कार्यमां वापरी शकाय । पण दोन दुःखी या याचक विगरेने आपी शकाय नहीं ।
(९) साधार्मिक वात्सल्य साधार्मिक वात्सल्य एटले साधार्मिक (समान धर्मी) भाई बहेनोनी विविध प्रकारनी भक्ति निमित्त योजायेल कार्यों जेवा के नवकारसी, स्वामीवात्सल्य तपस्वीओ ना अतर वायणा-पारणा, एकासणा, आयंबिल, पौषाती आदिना भोजन (जमण), प्रभावना
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श्री जैन शासन संस्था
३७]]
विगेरे आ सम्बन्धीन द्रव्य ते ते कार्यों मां वापरी शकाय अने जरूर पड़े तो (संघनी सम्मतिथी) सातक्षेत्र पैकी कोईमां पण वापरी शकाय ।
___ जैन शासननी एवीव्याख्या छे के सात क्षेत्रोमां नीचेथी उपरना क्षेत्रो एक एक थी अधिक पवित्र अने उच्च स्थाने छ माटे नीचे ना द्रव्यों ते ते उद्देशोमां न खरचाया होय, वधारे होय, अगर ते उद्देश्य निष्फल गयो होय या वहीवटदारों या संघने ते ते क्षेत्रमा खरचर्चा जरूरी न लागे अगर वधु लाभ- कारण प्रतीत थाय तो ऊपर उपरना क्षेत्रमा खरची सकाय जेम के :
श्रावक श्राविका क्षेत्रनु उपरना पांचे क्षेत्रमा पण वापरी सकाय । साधु, साध्वी क्षेत्रनुं द्रव्य उपरना त्रणे क्षेत्रमा पण खरची सकाय ।
ज्ञान द्रव्य उपरना वे क्षेत्रमा पण खरची शकाय जिनप्रतिमा अने चैत्य (मन्दिर सम्बन्धी) द्रव्य ने फक्त एकज देवद्रव्य तरीकेज खरची सकाय ।
(एटले) पहेला बीजा क्षेत्रनं त्रीजामां, पहेला बीजा-त्रीजा क्षेत्र चीथामां के पांचमामां के प्रथमना पांचे क्षेत्रोनु छट्ठा सातमामां नीचे नीचेना क्षेत्रमा खरची न सकाय ।
(१०) अनुकम्पा द्रव्य १. कोई पण दोन दुःखी मनुष्य ने दुःख मुक्त करवा माटेनुं द्रव्य अनुकम्पा द्रव्य ।।
२. ते द्रव्य-दीन, दुःखी मनुष्य ने हरेक प्रकारनी सहायमां आपी सकाय-अने ते धार्मिक (रोलोजिअस) द्रव्य छ कारण के आपनारना ध्यानमां शुभ परिणामनी रक्षामाटे ते अपाय छे माटे ते तेमांज खरची सकाय छे बीजामां आपी सकाय नहीं ।
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३८]
श्री जैन शासन संस्था
(११) जीवदया द्रव्य .. निराधार पशु पंखोओना जीवन संरक्षण माटे समर्पण थयेल ते जीवदया द्रव्य तेमा पांजरापोल परबड़ी (प्याऊ) वगेरे तमाम जीवदया सम्बन्धी कार्योनो समावेश थाय छे अने ते द्रव्यनो, जीवो मरतों बचाववा, वृद्ध, लुलां, पांगला, अने निराधार पशु पंखोओना रोग दुख दूर करवा तथा तेना. जीवन निर्वाह माटेज खरची सकाय । बीजा कोई पण कार्यमां के मनुष्यना उपयोगमा लई सकाय नहीं, ता० क०-जे जे खातानी, रकमों स्थायी, फंड (अनामत) के चालु
फंडनी रकमोनुं व्याज, मकान, भाड़ा, खेती के कोईपण साधनधी उत्पन्न थाल आवक ते ते खातानी गणाय अने अणवपरायेल रकम अगर उद्देश मुजब खर्च करवा छतां वधारानी रकम पण जे ते खातानो गणाय अने व्यय माटे पण ते ते खाताना नियमों तेने लागु पड़े छ ।
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श्री जैन शासन संस्था
३९]
परिशिष्ट ५
(विधान की रूपरेखा) श्री जैन संघ का शास्त्रीय और वास्तविक विधान (बंधारण) तीर्थस्थापन के समय से चला आ रहा है, जिसका दिग्दर्शन कराया है। इससे विपरीत विधान श्री संघ की सम्पत्ति या ट्रस्ट के लिये किसी को कराने का अधिकार नहीं है। किन्तु वर्तमान राज्यसत्ता के ट्रस्ट आदि के कानून और अपने बन्धु जो परम्परा के वहीवटी (संचालन) ज्ञान एवं शासनमर्यादा से अनभिज्ञ होने से सरकार में देने के लिये विधान की मांग कर रहे है, उनको मार्गदर्शन कराया जाता है । १. नाम :-इस संख्या, का नाम गांव.........."
........... रहेगा। उद्देश्य :
___ श्री जैन शासन को द्रव्य और भाव सम्पत्ति (गांव, शहर या प्रदेश) का रक्षक व संचालन आदि परम्परागत सांस्कृतिक पद्धति शास्त्र आदि को आज्ञानुसार तथा भिन्न-भिन्न समय पर आचार्य देवों से लिये गए आदेशों और निर्णयानुसार करना । ३. संचालन का अधिकार :
... स्थानीय श्री जैन संघ द्रव्य सप्ततिका शास्त्र आदि में निदिष्ट गुण वाले श्रावक को गीतार्य मुनिवर की राय से नियुक्त करें। १. योग्यता के लिये द्रव्य सप्ततिका शास्त्र में अच्छा वर्णन है। १४४४ ग्रंथ के प्रणेता श्री हरिभद्र सूरिजी महाराज कृत पंचासक सूत्र में भी वर्णन है :
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४० ]
श्री जैन शासन संस्था
" अहिगारी य गिहत्थो शुहस्याणो वित्तमंसुओं कुलजो । अस्कुद्दो थिईबलउ मइमं तह धम्मरागीय । गुरुपूजाकरणरई, सुस्सूसाई गुणसंगउ चेव । णायाहिगयत्रिहवो णस्सघणीयमाणापहाणो य ॥ ६॥ - पंचासक सूत्र
भावार्थ :- अनुकूल कुटुम्ब वाला धनवान् सत्कार करने योग्य, कुलवान, दानी, धैर्यरूप बलवाला, बुद्धिमान्, धर्म का रागी गुरुपूजा में तत्पर, शुश्रूषादि बुद्धि के आठ गुण वाला, चैत्य द्रव्य वगैरह की वृद्धि के उपाय का जानकार और शास्त्र की आज्ञा के अधीन, इतने गुणवान् गृहस्थ चैत्य कार्यो का अधिकारी है । जैन शासन संघ के कोई भी कार्यवाहक संघ के प्रति या वहीवटकर्त्ता को कम से कम द्रव्यसप्ततिका पूज्य उपाध्यायजी लावण्यविजयजी कृत १७४४ का अभ्यास करना आवश्यक है ।
पदाधिकारी :
(१) मुख्य कार्यवाहक (संचालक) (२) सहायक कार्यवाहक (संचालक) (३) कोषाध्यक्ष
नोट :- अन्य खातों के भिन्न- २ कार्यवाहक आवश्यकता हो तो श्री जैन संघ नियुक्त कर सकता है। श्री जैन संघ का वहीवट शुद्ध धार्मिक है, इसे जैन समाज नहीं किन्तु जैन संघ कहते हैं। मुख्य कार्यवाहक की आयु ३० से ७० वर्ष तक की हो तो अच्छा है ।
मौलिक "श्री जैन संघ" को ही श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, कहते हैं । भिन्न- २ सम्प्रदायों के प्रादुर्भाव के बाद में श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक आदि विशेषण लगाये गए हैं ।
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श्री जैन शासन संस्था
४. श्री संघ का अधिवेशन :
कार्यवाहक वर्ष में एक या दो या तीन दफा अपने कार्य का ब्यौरा श्री संघ के समक्ष प्रस्तुत करे । विशेष कार्यो के लिये श्री संघ की आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये । प्रत्येक कार्य शास्त्र संघ परम्परा की आज्ञानुसार करने का होने से सबका एक ही अभिप्राय होना स्वाभाविक है। किसी बात में बुद्धिभेद हो तो हठाग्रह खींचा-खींची न रखते हुए गीतार्थ योग्य मुनिवर या आचार्य के समक्ष रखकर योग्य निर्णय लेना चाहिए ।
५. कार्यवाहक का परिवर्तन :
___ अगर कार्यवाहक, सहायक कार्यवाहक या कोषाध्यक्ष बदलने की आवश्यकता महसूस हो तो या किसी कार्यवाहक की जगह खाली हो तो श्री जैन संघ अपने अधिवेशन में निर्णय कर अन्य कार्यवाहक को नियुक्त कर सकता है ।
६. कार्यसंचालन की पद्धति :
संस्था का कार्य "संचालन संस्था" के नाम से होगा । कोई भी वहीवटदार अपने व्यक्तिगत नाम से चल या अचल सम्पत्ति का लेन-देन नहीं कर सकेगा। बेचाननामे, किराया चिठी सब संस्था के नाम पर होगे। संस्था को रकम संस्था के नाम से ही जैन शास्त्रों में निर्दिष्ट स्थानों में रखी जावेगी ।
धार्मिक क्षेत्रों का वहीवट प्रबन्ध परम्परागत जैन शास्त्रों के अनुसार होगा। इसमें परिवर्तन करने का अधिकार किसी भी स्थानीय संघ या किसी भी व्यक्ति को सर्वानुमति या बहुमत से भी
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श्री जैन शासन संस्था
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नहीं है और न होगा। किन्तु सिद्धान्त एवं मूलभूत तत्वों की रक्षा के लिए अपने-अपने क्षेत्र की परिस्थिति के अनुसार वहीवट को सुलभता के लिये जैन शासन की मर्यादा के अविरुद्ध नियम प्रत्येक स्थानीय श्री संघ या कार्यवाहक निश्चित कर सकते हैं । संचालन में जिनाज्ञा प्रधान रहेगी।
आडोटर या संघ द्वारा नियुक्त श्रावक द्वारा हिसाब जांच किया जाय और संघ के समक्ष प्रस्तुत किया जाय ।
संस्था द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त रकम उन्हीं क्षेत्रों में खर्च की जायेगी किन्तु सात क्षेत्रों (जिन प्रतिमा, जिन मन्दिर, सम्यकज्ञान साधु, साध्वी, श्रावक धाविका) में प्राप्त रकम का उपयोग जिनाज्ञानुसार किया जा सकेगा।
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४३]
धर्म क्षेत्र के वहीवटदारों को शासन परंपरा के हित की दृष्टि से समझने योग्य साथ ही वर्तमान काल की दृष्टि से विचारणीय बिन्दु
श्री जैन शासन संस्था
चितक- पू० पं० श्री अभय सागर जी म० सा० के शिष्यरत्न पू० पं० श्री निरूपम सागर जी म० सा० ।
संशोधक – आगमोद्धारक श्री के शिष्यरत्न पू० आ० श्री सूर्योदय सागर मूरिजी म० सा० ।
१. सात क्षेत्र का संरक्षण करना, यह समस्त चतुविध संघ का कर्तव्य है ।
२. सात क्षेत्र में नीचे के क्षेत्र की अपेक्षा ऊपर के क्षेत्र की महत्ता समझना एवं पालन करना ।
३. जिन प्रतिमा और जिन मन्दिर ( देव द्रव्य) संबंधी द्रव्य का भोग (कमी) कर बाकी के क्षेत्रों के द्रव्य की वृद्धि करना, यह बास्तबिक दृष्टि से उचित नहीं है ।
४. ज्ञान द्रव्य का भोग (कमी-लोप) कर साधु-साध्वी वैयावच्च, तपस्वी अथवा साधमिक के द्रव्य की वृद्धि भी उचित नहीं । ५. वैयावच्च संबंधी द्रव्य का भोग ( कमी, अवमूल्यन ) कर, तपस्वी या साधर्मिक द्रव्य की वृद्धि भी उचित नहीं । ६. वैयावच्च, तपस्वी अथवा साधर्मिक के द्रव्य का भोग ( कमी ह्रास) कर सामाजिक द्रव्य (विद्यालय, औषधालय, निर्धन सहायता) की वृद्धि भी बिल्कुल योग्य नहीं ।
७. इस प्रकार ऊपर के द्रव्य के भोग (कमी) पर नीचे
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४४]
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के क्षेत्र के द्रव्य की वृद्धि (अधिमूल्यन) से सात क्षेत्र संबंधी विचार दूषित होते हैं, यह पद्धति ( विचार धारा ) जिनाज्ञाशास्त्राज्ञा विरुद्ध है । सात क्षेत्र की अवमानना (अवमूल्यन, अपमान) होता है ।
८. देरासर (मन्दिर) अथवा देरासर की सीमा (प्रांगण, परिसर) के किसी स्थान में देरासर संबंधी साधारण भण्डार के अलावा कोई भी प्रकार का भंडार रखा हो नहीं जा सकता है। इसकी आवक भी देरासर के कार्य में ही खर्च हो सकती है ।
९. सात क्षेत्र रूपी धर्म (धामिक) द्रव्य की रक्षा के लिये सुविधा अनुसार व्यवस्था में खर्च घटाना आवश्यक है ।
१०. उचित व्यवस्था हेतु पूज्य गुरु भगवंतों की निश्रा में सापेक्ष योग्य विचार कर आर्थिक व्यवस्था करना चाहिये।
११. सात क्षेत्र आदि सभी खाते पृथक्-पृथक् (अलगअलग) ही रहने चाहिये । परस्पर एक में दूसरे का उपयोग नहीं हो सकता है । (ऊपर दर्शाये अपवादों को छोड़कर) ।
१२. जनरल-साधारण (सुकृत-शुभ) खाते के द्रव्य में से देव के साधारण खाते में उपयोग (व्यय) हो सकता है। किन्तु देव के साधारण खाते में से अन्य क्षेत्र में खर्च नहीं हो सकता है।
१३. श्रावक-श्राविकाओं को देव-गुरु की भक्ति भावोल्लास पूर्वक स्व (निजी-व्यक्तिगत-अपने खुद के ) द्रव्य से करने का आग्रह रखना चाहिये।
१४. मुळ उतार कर स्व द्रव्य से प्रभु भक्ति में जितना उल्लास एवं लाभ है उतना उल्लास एवं लाभ देरासर के द्रव्य द्वारा नहीं, यह अनुभव सिद्ध तथ्य (हकीकत) है।
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श्री जैन शासन संस्था
१५. गुरु द्रव्य ( साधु साध्वी वैयावच्च ) द्वारा साधुसाध्वी यावच्च करने से श्रावक-श्राविका के वैयावच्च के स्व कर्तव्य ( निजी फर्ज ) को ठेस लगती है । वह कर्तव्यच्युत हो जाता है।
१६. ज्ञान द्रव्य (ज्ञात खाता) से आई हुई पुस्तक या शास्त्र का उपयोग श्रावक नहीं कर सकता है । इसी प्रकार पाठशाला के शिक्षक-बालक भी उपयोग नहीं कर सकते हैं ।
१७. उपाश्रय श्रावकों के धर्माराधन करने के लिये है न कि सामाजिक कार्य (जन्म-विवाह-मत्यु आदि) करके आय प्राप्त करने के लिये।
१८. दानदाता (उपाश्रय 'या धर्म स्थान के संस्थापक) उपाश्रय हेतु दान देते है उनमें सामाजिक कार्य करना-करवाना, करने वाले का अनुमोदन करना अथवा नहीं रोकना, यह दानदाता के प्रति विश्वासघात होता है ।
१९. आयंबिल खाता, तपस्वीयों के पारणे का द्रव्य, स्वामीतात्सल्य, सार्मिक भक्ति आदि धर्म द्रव्य का उपयोग विद्यालय, चिकित्सालय, निर्धन सहायता हेतु नहीं कर सकते हैं ।
२०. जीव दया या पांजरापोल की रकम सात क्षेत्र में नहीं वापर सकते हैं।
२१.साधु काल धर्म (देवलोक) अथवा दीक्षा की आप देव द्रव्य या साधु वैहावच्च में वापरना ।
२२. साधु-साध्वी को तपस्या के पारणा को बोलो बोलना अशास्त्रीय है।
२३. धर्म द्रवम को वहीवट (व्यवस्था) साधक द्रव्य-क्षेत्र
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४६]
श्री जैन शासन संस्था
काल-भाव की प्रधानता से ही हो सकती है। साधक विशेषण छोड़कर नहीं ।
२४. देरासर - उपाश्रम धर्म स्थान निर्माण होते ही उसके निभाव ( रख-रखाव ) की व्यवस्था हो जाना आवश्यक है । २५. देरासर - उपाश्रय का निर्माण लॉटरी पद्धति से करना उचित नहीं ।
२६. देरासर - उपाश्रय आदि के निभाव बाबत रकम ब्याज पर रखने की अपेक्षा भूमि, भवन आदि स्थायी (स्थावर ) संपत्ति बसा लेना ( रखना) अधिक अच्छा है । वहीवटदार उचित भाड़ा बाजार भाव से उगावे ।
२७. देव द्रव्य की आवक (आय) द्वारा प्राप्त की हुई स्थायी संपत्ति देरासर के कार्य हेतु ही वापर सकते हैं ।
२८. साधारण द्रव्य ( खाता) की रकम ( भेंट - आय-प्राप्ति आदि) या स्थायी संपत्ति सात क्षेत्र में ले जाई जा सकती है ।
२९. देरासर, उपाश्रय धर्म स्थानों आदि के निभाव हेतु आरस ( मकराना - संगमरमर ) की तख्ती पर नाम लिखकर अथवा कूपन पद्धति से रकम प्राप्त की जा सकती है ।
३०. देरासर, उपाश्रय आदि धर्म स्थानों के निभाव हेतु उन-उन क्षेत्रों के महाजन, जैनियों के शुभ-अशुभ (जन्म-विवाहमृत्यु) प्रसंगों पर अथवा सुखी संपन्न जैनियों की आय की वृद्धि में से मीठास ( मधुर वचन ) से प्राप्त कर सकते है ।
३१. देव द्रव्य की रकम या ब्याज भूल से भी व्यापार या सांसारिक कार्य में उपयोग करे तो देव द्रव्य का भक्षक बनता है और दुर्गति का भागी बनता है ।
३२. सात क्षेत्र, जीव दया, स्वामी वात्सल्य, आयंबिल
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श्री जैन शासन संस्था
४७] खाता, तपस्वीयों का पारणा, शुभखाता ( सुकृत फंड) आदि धर्म द्रव्यों के खाते अलग-अलग ( पृथक-पृथक ) रखना चाहिये ।
३३. देव- गुरु के पास ( उपाश्रय-मन्दिर में ) कभी भी मुख में पान, मुख शुद्धि आदि पदार्थ खाते हुए नहीं जा सकते है । ३४. प्रक्षाल, पूजा, आरती, सपनाजी, माल, प्रतिष्ठा, महोत्सव, पर्यं षण सूत्र -ज्ञान आदि की बोलियों की अथवा टिप ( पानड़ी) में लिखवाई हुई रकम तत्काल चुका देना चाहिये । बोली बोलने तथा टिप लिखाते समय से ही व्यक्ति देनदार हो जाता है और उस पर व्यापार के ब्याज के सामन ही ब्याज चढ़ने लगता है । अतः देनदारी की उपेक्षा या प्रमाद नहीं करना चाहिये ।
३५. श्री संघ के वहीवटकर्ता-कार्यकर्ता आगेवान मनीम गुमाश्ता आदि को भी धर्म द्रव्य की उगाही वसूली समय पर अविलंब करनी चाहिये, नहीं तो उन्हें भी देनदार के साथ ही दोष का भागी बनना पड़ता है । देव द्रव्यादि का भक्षण एवं कमी दुःखदायी तथा रक्षण एवं वृद्धि सुखदायी है । इसके कई शास्त्र पाठ एवं उदाहरण मिलते हैं ।
श्री श्री
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४८]
श्री बीन शासन संस्था
जिन मन्दिर तथा जिन प्रतिमा की आशातना से बचें (प० पू० पं० गुरुदेव श्री अभय सागर जी म. सा. के चरणों में रहकर प्राप्त ज्ञान में से आराधक जीवों के लाभार्थ उपयोगी बातें) संग्राहक-पू० पं० श्री निरुपम सागर जी म. सा. संशोधक-पू० आ० श्री सूर्योदय सागर सूरिजी म. सा० ।
१. भगवान को अंगरचना करते समय नव अंग खुले रखने का ध्यान अवश्य रखें।
२. भगवान को अंगरचना में ल्पास्टिक, कचकड़ा, गोंद, पुठ्ठा आदि तुच्छ पदार्थों का उपयोग न करें।
३. प्रभु पूजा में पुरुष खेस (उतरासन, दुपट्टा) एवं बहनें रूमाल से आठ पड (पूड़) की घड़ी कर मुखकोश बांधे ।
४. प्रभु पुजा में बनियान, जांघिये सिले हुए वस्त्र आदि का उपयोग न करें।
५. प्रभु पूजा में बहनों को मस्तक अवश्य ढंकना चाहिये। सिर खूला न रखें।
६. पुरुषों द्वारा लूंगी एवं बहनों द्वारा झब्बा (फ्राक(कूर्ती स्कर्ट गाउन) पहनकर दर्शन पूजन करने जाना, यह महान् आशातना है।
७. प्रभु पूजा में पुरुषों द्वारा घोती, खेस, कंदोरा के अलावा अन्य किसी वस्त्र का उपयोग नहीं होता है ।
८. बहनों द्वारा पूजा करने में लंहगा (घाघरा चणीया) साड़ी (लुगड़ा धोती) चोली (पोलका ब्लाउज) रूमाल के अलावा अन्य किसी वस्त्र का उपयोग नहीं होता है ।
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श्री जैन शासन संस्था
९. इच्छानुसार ( मन पसंद ) वस्त्र पहनने से स्वयं की महत्ता बढ़ती है, प्रभु की महत्ता घटती है।
१०. परमात्मा की महत्ता कायम रखना हो, उसमें वृद्धि करना हो तो श्रावक श्राविकाओं को उचित वस्त्र ही पहनने चाहिये।
११. धातु के प्रतिमाजी तथा नवपदजी (सिद्धचक्रजी) दोनों हाथों में ग्रहण करने से उनका बहुमान कायम रहता है ।
१२. आवश्यक होने पर प्रभुजी, नवपदजी आदि पर खसकूची बहुत मुलायम (हल्के, धीमे) हाथ से करें।
१३. पाट लुंछणा (पाट पूंछणा) करने के बाद हाथ धो . पूंछकर अंगलूछणां (अंगलूणा) करें।
१४. पाट लुछणा तथा अंगलूणा भूमि पर अथवा पबासण . (पेढ़ी-ओटला) पर न रखें । अलग-अलग बर्तन में रखें।
१५. प्रभु पूजा में भगवान तथा नवपदजी की पूजा करने के बाद गुरु एवं उसके बाद देव देवीआदि की करें।
१६. गुरु पूजा एवं देव देवी को पूजा में वापरे हुए चंदन से प्रभु पूजा नहीं होती हैं।
१७. देव देवी-यक्ष यक्षिणी मणिभद्रजी आदि की पूजा अंगूठे से तिलक लगाकर करें, तर्जनी अंगुली से नहीं ।
१८. पुष्प पूजा में पुष्प की पंखुड़ियां तोड़कर न चढ़ायें।
१९. अंग पूजा के अतिरिक्त, धूप, दीप, चामर आदि सभी मूल गभारे के बाहर रहकर करें।
२०. गभारे में भक्तामर-वृहदशान्ति आदि स्तोत्र बोलते हुए पूजा नहीं होती है । नव अंग की पूआ के दोहे बोलम चाहिये ।
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श्री जैन शासन संस्था
२१. गभारे में स्नान किये बंगर - कोई भी व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता है ।
५० ]
२२. गभारे में लोहे-स्टील आदि की कोई भी वस्तु नहीं - रख सकते ।
२३. घड़ियाल (घड़ी - वाच) में लोहा होने से घड़ो पहिन कर पूजा नहीं हो सकती है ।
२४. प्रभु के पास घी के अधिक दीपक होने से आध्यात्मिकता तथा वातावरण में शुद्धि अधिक रहती है । ( अत्यधिक दीपक भी न रखें जिससे गर्मी अधिक बढ़ जावे तथा प्रतिमा / लेप को हानि पहुंचे) ।
२५. गभाडे में बिजली, गॅस, कंदील मोमबत्ती आदि का प्रकाश न करें। शुद्ध देशी घी का दीपक लगावें । गभारे में बिजली का फिटिंग ही नहीं होना चाहिये । यदि अज्ञानतावश फिटिंग हो गया है, तो उसे हटा देना चाहिये ।
२६. कुछ स्थान पर प्रभु की अंगरचना ( आंगी) करके तेज रोशनी हेतु बिजली के अधिक वॉट के लेप ( बल्ब - ग्लोब) फोकस, हेजोलिन, आदि लगा देते हैं इससे जिन मन्दिर एवं जिन मूर्ति को भयंकर हानि पहुंचती है। गुजरात में घी के दीपक के प्रकाश से आंगी के भव्य एवं प्राकृतिक रूप से दर्शन होते हैं, यह अनुभव सिद्ध है । महोत्सव प्रसंग पर सजावट हेतु भारी विद्युत् सज्जा (लाईट डेकोरेशन) का चलन हो रहा है इससे भयंकर हिंसा होती है तथा बिजली लगाने वाले आशातना एवं पाप के भागी बनते हैं ।
२७. प्रभुजी के सम्मुख बिजली के प्रकाश से आध्यात्मिकता घटती है, वातावरण अशुद्ध होता है ।
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श्री जैन शासन संस्था
५१]
२८. देरासर में ल्पास्टीक, सनमाईका आदि अशुद्ध द्रव्य (पदार्थ) का उपयोग नहीं होता।
२९. देरासर में सुविधा की अपेक्षा आध्यात्मिकता की प्रधानता को महत्व देना जरूरी है।
३० देरासर में ट्रांजिस्टर, टी. वी., माईक, वीडियो, टेप, फिल्म, पंखा, लाईट, ट्यूब, स्पीकर, घड़ियाल, झांझ, ढोल, नगाड़ा (बैटरी विद्युत संचालित) आदि वैज्ञानिक साधनों के उपयोग से आध्यात्मिकता नष्ट होती है ।
३१. देरासर में बॉक्सिंग आर. सी. सी. लोहे बीम सिस्टम लेने से देरासर की आयु बहुत कम हो जाती है ।
३२. देरासर में स्लीपर, मौजे आदि पहनकर नहीं जाया जाता। इसकी अपेक्षा देरासर में प्रवेश करते समय पैर धोने हेतु पानी की व्यवस्था रखनी चाहिये ।
३३. भगनान के समक्ष साधु-साध्वी को नयस्कार (बमनवन्दन) अथवा खमासमण नहीं दिया जाता । धावण-श्राविका को भी प्रणाम नहीं किया जाता।
३४. प्रभु के सम्मुख हार नहीं पहना जाता। चांदला (तिलक) नहीं लगावा किया जाता। (जिनाज्ञा शिरोधार्य करने के प्रतीक स्वरूप चांदला) तिलक अलग से (प्रभु सम्मुख नहीं) लगाना (करना) चाहिये ।।
३५. देरासर में कुछ लोगों ने स्टेनलेस स्टील (दाग-धब्बाजंग रहित पक्के लौहे स्पात) के बर्तनों के उपयोग का प्रयत्न किया है, जो दोष पूर्ण है. अतः वहीवटदार (वहीवटकर्ता, व्यवस्थापक, प्रबन्धक, न्यासी) एवं आराधक वर्ग को इसे रोकना चाहिये। क्योंकि यह लौहा ही है । अतः इसका कोई उपकरण काम में न लें।
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[ ५३ ]
श्री जंन शासन संस्था
धर्म क्रिया की शुद्धि में उपयोगी बातें
संग्राहक - पू. पं. श्री निरूपमसागरजी संशोधक - पू. आ. श्री सूर्योदय सागर सूरिजी
१. सामायिक प्रतिक्रमण में कटासणा ( आस, बेटका ) ऊन का एवं मुहपत्ति सूत की होनी चाहिये ।
२. सामायिक प्रतिक्रमण में चरवला - कंदोरा अवश्य रखना
चाहिये !
३. सामायिक प्रतिक्रमण में लूंगी, बनियान, जांघिया पहिनकर नहीं कर सकते हैं ।
४. सामायिक प्रतिक्रमण में चखले के बिना खड़े नहीं हो सकते, दोनों गोड़े (घुटने) खड़े नहीं रख सकते ।
५. पौषध में ऊन को संथारिया तथा उत्तर पट्टा ( चद्दर ) सफेद ही चाहिये ।
६. पौषध में काल के समय स्थंडिल, मात्रा जाते समय सिर पर कदास रखकर नहीं जाया जाता । कामली ओढ़कर जाना चाहिये ।
७. सामायिक, पौषध में आधी धोती (अयं घोतियं) पहिनकर नहीं बैठ जाता ।
८. किसी भी चालू क्रिया में एक क्षण के लिये भी कटासण छोड़कर पंज्या बिना जावे तो ईरियावही करनी पड़े ।
९. सम्मायिक, प्रतिक्रमण में पुरुष सिले हुए वस्त्र का उपयोग नहीं कर सकते ।
१०. प्रतिक्रमण में खेस ( दुपट्टा उत्तरासन ) रखना आवश्यक है ।
११. सामायिक, प्रतिक्रमण गुरुनिश्रा में करने में अधिक लाभ है ।
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श्री जैन शासन संस्था
५३ ]
१२. सामायिक, पौषध में पत्रिका (मेग्जीन ) अखबार - समाचार पत्र बिल्कुल नहीं पढ़ा जाता ।
१३. सामायिक, पौषध में घड़ी (वाँच) निकाल लेवें, नहीं पहन सकते ।
१४. सामायिक, पौषध पूजन आदि के वस्त्र बिल्कुल
स्वच्छ रखना ।
१५. प्लास्टीक अशुद्ध द्रव्य होने से प्लास्टीक की नवकार वाली उपयोग में नही ले सकते ।
१६. नवकारवाली हाथ में नहीं पहिन सकते, चरवला या जेब में नहीं रख सकते, डिब्बी अथवा बटुवे में रखना ।
१७. सामायिक, प्रतिक्रमण में नवकार, पंचिदिय सूत्र अथवा सम्यक ज्ञान की पुस्तक सम्मुख हो तो हो नवकार - पंचिदिय द्वारा गुरु स्थापना करना । अक्ष के स्थापनाजी सम्मुख होवे तो गुरु स्थापना करना आवश्यक नहीं ।
१८. सामायिक, पौषध पारने में हाथ खुल्ला (उल्टा ) चरवला पर रखना । पञ्चववरण पारते समय मुठ्ठी बांधना । १९. उपवास, एकासपा आदि पच्चक्त्वाण में खड़े पैर रखकर पानी नहीं वापर सकते ।
२०. विवासणा, एकासना, आयंबिल, आदि स्थिर (नहीं हिलेडूले ऐसा) पाटले पर थाली रखकर ही होता है ।
२१. श्रावक, साधू को अम्भुट्टिआ खाने, साध्वी को मात्र मत्वरण वंदामि कहे ।
२२. श्राविका साधू-साध्वी दोनों को अहमुष्ठिओ खामे । २३. ज्ञान पूजा करते सयम पहले ज्ञाम पर वासक्षेप करना ( चढ़ाना), फिर थाली में रुपये पैसे रखना ।
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५४]
श्री जन शासन संस्था
॥श्री वर्धमान स्वामिने नमः ॥ महोत्सव में कम से कम इतना तो पालन करना ही चाहिये १. सजावट-डेकोरेशन हेतु विद्युत-बिजली-लाइट नहीं।। २. चढ़ावा-बोली बोलने के अतिरिक्त पूजा भावना में माईक (लाउ___ डस्पीकर) नही (पूज्य साधु-साध्वी उपस्थित न होवें तो भी)। ३. रात्रि को भावना १० बजे बाद नहीं करें। रात्रि भोजन नहीं। ४. सिनेमा का संगीत-गीत नहीं। टेपरिकार्डर का उपयोग नहीं । ५. बहिनों का कोई कार्य-क्रम नहीं (पुरुषों की उपस्थिति में)। ६. रथ यात्रा में माइक वाला बैंड नहीं । ७. साधु-साध्वी की उपस्थिति में फोटो ग्राफी नहीं । ८. मुवी केमेरा (वी. सी. आर.) का उपयोग नहों। ९. बरफ, टमाटर, गोभी, हरा धनिया, पत्तर वेल के पान, बादाम
के अतिरिक्त अन्य मेवा (फाल्गुन मासपश्चाता) आदि अतिक्ष्य
(अभक्ष्य) वस्तुएं नहीं वापरना। १०. जलेबी अथवा बाहर के वासी मावा (खोआ) की मिठाई नहीं। ११. मिठाई नमकीन आदि रात्रि में न बनावें। १२. द्विदल का दोष लगे ऐसी वस्तुएं नही। १३. बहिनों द्वारा अथवा बहिनों के साथ डांडिया रास नहीं। १४. प्रभु भक्ति के नाम पर औपदेशिक गीत, कथा गीत, जलसा
मनोरंजन कार्यक्रम आदि नहीं। १५. वीतराग प्रभु की वीतरागता अक्षुण्ण रहे इस हेतु प्रभुजी को
पद्मासन मुद्रा क जावे ऐसी तथा मोहक विकृत अंगरचना
करना-करवाना नहीं। १६. अंगरचना में रुई, पुठ्ठा, रंगीन कागज, सनगाईका, प्लास्टीक,
सरस आदि का उपयोग नहीं करना। १७. इलेक्ट्रीक-बिजली संचालित अथवा यांत्रिक रचनाएँ नहीं करना।
लि. मुनि अभय सागर का धर्म लाभ दि. १-५-१९८३
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क्रमांक गिनें ।
पृष्ठ
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१९
श्री जैन शासन संस्था
शुद्धि-पत्रक
पुस्तक के नाम के नीचे आड़ी रेखा के बाद से पंक्ति
२०
पंक्ति क्र.
७
ረ
२०
१७
४
१४
२०
M
6
४
१६
२१
२३
११
२५
१४
६
१०
११
२३
७
८
२५
अशुद्ध
आगम
जीत और आचार यह
वीतराग, आज्ञा
वीतराग आज्ञा
कायों में आज्ञा और कार्यों में आज्ञा और
आज्ञा को
धर्मों
शासत
दुप्पहसूरि
सिद्धातों मुताबित्तक
श्री सघ
एवं एवं सिद्धान्तों के आधीन है
सचालन
होना
सघ
द्रव्य.
हींआ
कार्य
कायो
लाने
५५]
शुद्ध
आज्ञा, आगम और जीत यह
श्रावक-श्रावक
देनी
4.
आज्ञा का
धर्मो
शासन
एवं सिद्धान्तों के आधीन है यह
संचालन
दुप्पसहसूरि
सिद्धान्तों
मुताबिक
श्री संघ
होना होता
संघ
द्रव्य,
ही आ
कार्य
कार्मो
लेने
श्रावक
देना
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________________ भी बन शासन संस्था km द्रव्य 2 अचार दिनकर आचार दिनकर बोला बोला गया ओषध औषध भंद व आदि वृद्धि भेंट व अभिवृद्धि द्रवय में में चउन्द्रीय, तेन्द्रिइय, एकेद्रिय चउरिन्द्रिय, तेइन्द्रिय, एकेन्द्रिय व्रहम ब्रहम कल्याण कल्याणक हाजिरी पंसदगी पसंदगी घराने धराने समयक्त्व सम्यक्त्व मंदिरमा मंदिरमां ज्ञानलातीनी ज्ञानखातान धावांक श्रावक साधामिक सामिक . हाजरी 4 15, 16 19, 20 क्षेत्रन धार्मिक तेमा 17 क्षेत्रनूं धार्मिक तेमा संख्या वित्तमंसुओं कार्यवाहक संस्था वित्तमंसुओ कार्यवाहक होंगे -:**: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com