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श्री जैन शासन संस्था
॥ श्री वीतरागाय नमः ।।
द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना से प्रकाशकीय निवेदन ...
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वतमानकाल में जगह २ पर बुद्धिवादी ( सुधारक ) लोगों की तकणा के बल पर विविध प्रकार को संस्थाएं मण्डल सोसायटी एसोसिएशन एवं यूनियन आदि के रूप में दिन दूनी रात चौगुनी को शक्ल में प्रफुल्लित होती जा रही है और प्रत्येक संस्था अपना स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करने हेतु नव-निर्माण के जोश में सांस्कृतिक परम्परा से कतई विलक्षण बातों को बंधारण के नाम पर अंधानुकरण के रूप से स्वीकृत कर मूल-भूत प्राचीनतम परम्परा से अपना सम्बन्ध सर्वथा तोड़ देने का दुस्साहस जाने अनजाने रूप में कर बैठती है।
ऐसी स्थिति में लालबत्ती के रूप में अनंतोपकारी निःस्वार्थ करुणा के भंडार तीर्थकर देव भगवान की सर्व हितकर शासन संस्था का मौलिक परिचय विचारक सुज्ञ महानुभावों के सामने प्रस्तुत करना जरूरी समझकर यह लघु प्रयास जो है उसे सुव्यवस्थित रूप में बनाये रखने के शुभ उद्देश्य से किया जारहा है। . असली बात इस पुस्तिका के द्वारा व्यक्त करने का भरसक प्रयत्न किया है वह यह है कि -- "अनन्तोपकारी विश्ववत्सल अरिहंत भगवन्त ने अधिकारानुरूप सर्व जगत के जीवों को लाभ देने वाली संस्था जिन शासन के रूप में परा पूर्व से अपने को प्राप्त हुई है, कालबल से उसके यथार्थ स्वरूप की जानकारी के अभाव को ज्ञानी महा-पुरुषों के तत्त्वावधान में जिज्ञासा द्वारा दूर करके नई-नई संस्था एवं नये २ विधान संघारण बनाकर पुराने सर्व हितकर शासन के बंधारण को रद्द कर देने की अक्षम्य गलती न करने पाये।
इस पुस्तिका का मूल ढाँचा जैन शासन को मार्मिकता को
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