Book Title: Jain Shasan Samstha ki Shastriya Sanchalan Paddhati
Author(s): Shankarlal Munot
Publisher: Shankarlal Munot

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Page 24
________________ १६] श्री जैन शासन संस्था ऐसी परम्परा का अनुयायी एक भी व्यक्ति हो तो भी यह श्री संघ है, शासन है और श्री संघ तथा शासन के हर एक अधिकार उसको न्याय की रीति से प्राप्त होते हैं । १५. शासन बाह्य वस्तुओं, सिद्धान्तों, तरीकों व साधनों का उपयोग नहीं करना चाहिये बल्कि टालना चाहिये। जबरन कोई भी वस्तु प्रवेश करे तो उसका प्रतिकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। टाली न जा सके तो मजबूरी, बलाभियोग, राजाभियोग, गणाभियोग आदि रूप से शासन या श्री संघ पर आघात आक्रमणादि समझना, अपभ्राजना माननी, परन्तु उसका बचाव करना उचित नहीं है । प्रसंग आने पर उसको दूर करने को जागृति कायम रखना जरूरी है । इस पर भी मंदिर, उपाश्रय देवादि द्रव्यों का प्रबन्ध, रक्षण, उपयोग, उपाश्रयों का, गुरु महाराज की भक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, उपाश्रयों की व्यवस्था आदि कार्य श्रावक तथा श्राविका से सम्बन्धित योग्य प्रचलित नियमों की जानकारी कायम कर उस मुताबितक करना चाहिये । १६. किसी भी जगह एक-दो जैन व्यक्ति हों वहां जैन शासन या जैन श्री संघ के तत्त्व होते हैं ऐसा समझना और उस माफिक अधिकारों का उपयोग करना चाहिए । १७. कोई भी स्थानीय संघ या व्यक्ति अपने को स्वतन्त्र नहीं मान सकता । वह सकल श्रोसघ या शासन, इसी तरह देव गुरु और शास्त्रों की आज्ञा के आधीन है और आखिर में धर्म के तत्त्व - ज्ञान और पंचाचार एवं एवं सिद्धान्तों के आधीन है समझकर चलना आवश्यक है । इससे विरुद्ध हो वह संघ बाहिर और ध्यान देने योग्य नहीं है उपेक्षा या प्रतिकार योग्य है। ऐसे के आदेश हुक्म या आज्ञा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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