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श्री जैन शासन संस्था
४७] खाता, तपस्वीयों का पारणा, शुभखाता ( सुकृत फंड) आदि धर्म द्रव्यों के खाते अलग-अलग ( पृथक-पृथक ) रखना चाहिये ।
३३. देव- गुरु के पास ( उपाश्रय-मन्दिर में ) कभी भी मुख में पान, मुख शुद्धि आदि पदार्थ खाते हुए नहीं जा सकते है । ३४. प्रक्षाल, पूजा, आरती, सपनाजी, माल, प्रतिष्ठा, महोत्सव, पर्यं षण सूत्र -ज्ञान आदि की बोलियों की अथवा टिप ( पानड़ी) में लिखवाई हुई रकम तत्काल चुका देना चाहिये । बोली बोलने तथा टिप लिखाते समय से ही व्यक्ति देनदार हो जाता है और उस पर व्यापार के ब्याज के सामन ही ब्याज चढ़ने लगता है । अतः देनदारी की उपेक्षा या प्रमाद नहीं करना चाहिये ।
३५. श्री संघ के वहीवटकर्ता-कार्यकर्ता आगेवान मनीम गुमाश्ता आदि को भी धर्म द्रव्य की उगाही वसूली समय पर अविलंब करनी चाहिये, नहीं तो उन्हें भी देनदार के साथ ही दोष का भागी बनना पड़ता है । देव द्रव्यादि का भक्षण एवं कमी दुःखदायी तथा रक्षण एवं वृद्धि सुखदायी है । इसके कई शास्त्र पाठ एवं उदाहरण मिलते हैं ।
श्री श्री
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